शिक्षा शब्द का आशय स्वयं बोलता है :-- सीखो अच्छा " यह जीवन की जैविक प्रक्रिया मनुष्य के जन्म लेने के बाद जैसे ही उसे चेतना जागने लगती है । उसमें अपना जीवन जीने , अपने जीवन को बचाने ,, अपने जीवन को सुरक्षा देने की भावना आने लगती है । जिससे वह लघु मानव शैशवावस्था से वह समाज में वातावरण में सभी से सीखने लग जाता है । अपने जीवन के लिए शुरुआती लाइफ उपयोगी टिप्स जिन्हें सम्मिलित रूप से आरंभिक शिक्षा कहा जाता है । आमतौर पर शिक्षा का व्यापक अर्थ स्कूली शिक्षा को समझा जाता है । जो एक निश्चित धार्मिक सामाजिक जीवन राष्ट्रीय योजना के अंतर्गत निश्चित स्थान विद्यालय में निर्धारित पाठ्यक्रम पड़ने पर ही संपन्न होती है । लोग उसे ही शिक्षा कहते हैं ।। जबकि मेरे विचार से शिक्षा की है परिभाषा पूरी नहीं है । मेरे विचार से शिक्षा बच्चा तीसरे महीने से शुरू कर देता है जिसमें वह अपने को दूसरों की अप्रिय प्रेरणा अप्रिय संवेदनशीलता से उनके अप्रिय व्यवहार से बचने का प्रयास शुरू कर देता है । इस दौरान बच्चे की मां के शैशव गान लोरियों का प्रभाव उस बच्चे पर पड़ने लगता है । यदि वह लोरियां अच्छी-अच्छी गाती सुनाती है तो बच्चे का विकास अलग दिशा में चलने लगता है यदि रहे बच्चे को लोरियां नहीं सुनाती है तो बच्चे का विकास रुक सा जाता है इसमें गौर करने की बात यह है कि मां बच्चे को हर समय अधिकतम लोरियां सुनाती रहती है परंतु बच्चा कभी कभी मूड होने पर ही उन लोगों को स्वीकार कर पाता है । उसके बाद जब वह 1 वर्ष का हो जाता है तो उसमें सीखने की प्रक्रिया तेजी से विकसित होने लगती है जिसमें वह अपने जीवन के लाइफ टिप्स परिवार के लोगों मां से अधिकतम पिता से न्यूनतम को देखकर और वातावरण के संवेदनशीलता को समझ कर तेजी से सीखता है । इस सीखने की प्रक्रिया में जब वह 2 साल का हो जाता है तो उसके सीखने की प्रक्रिया में मां बाप के अलावा घर परिवार के लोग जुड़ जाते हैं , वह उनसे भी सीखने लगता है । जब वह 5 वर्ष के पश्चात घर से बाहर निकलना शुरू कर देता है तो वह बाहर घर समाज परिवार और वातावरण सभी से सीखने लगता है । सीखने की प्रक्रिया जीवन में पैदा होने से शुरू हो जाती है जो सामान्य लोगों में स्कूली शिक्षा के रूप में 20 वर्ष तक चलती है , परंतु कुछ ऐसे लोग होते हैं जो मरते दम तक सीखते रहते हैं ऐसे लोगों को लचीली बुद्धि वाले परम बुद्धिमान विवेकशील लोग समझा जाता है ।
सीखने की प्रक्रिया में अधिकतर लोग सिर्फ स्कूली शिक्षा को शिक्षा समझकर स्कूली शिक्षा को सीखने पर जोर देते हैं जबकि मेरे अनुभव के अनुसार हमें पता भी नहीं चलता कि हम कब और किस किस तरह से स्कूली शिक्षा से हटकर शिक्षा के अन्य औपचारिक वैकल्पिक स्रोत जैसे सत्संग * , सभा * , पंचायत *, गोष्ठी * ,मित्रों की मंडली से* , अपने बड़े छोटे सभी लोगों की बातें सुनकर के अपने को शिक्षित करते रहते हैं । जिसे पर्सनालिटी डेवलपमेंट कहते हैं । आमतौर पर पाठ्यक्रम की शिक्षा को ही शिक्षा माना गया है । लेकिन मेरे विचार से बच्चा स्कूल में जाकर पाठ्यक्रम से ज्यादा अपने स्कूल के सहपाठियों से , कमतर निजी मनन चिंतन से , परन्तु स्कूल के शिक्षकों के निर्देशन में क्रियाकलापों से ज्यादा सीखते हैं । जिन के मन पर सहपाठियों का ज्यादा रंग चढ़ जाता है वह स्कूली पाठ्यक्रम की शिक्षा में कम रुचि लेते हैं । स्कूल की शिक्षा से दूर चले जाते हैं । समाज के लिए अनुपयोगी अपराध जगत में चले जाते हैं असामाजिक दृष्टिकोण अपना लेते हैं , जिनके मन पर शिक्षकों का रंग चढ़ता है वह स्कूली पाठ्यक्रम से जुड़ कर के परिवार समाज और राष्ट्र की उपयोगी विचारधारा से जुड़ कर के समाज के लिए उपयोगी नागरिक बन जाते हैं ।।
जिन छात्रों के मन में शिक्षा द्वारा निजी मनन चिंतन के गुंण उत्पन्न होकर अधिकतम हो जाती है । मात्र वहीं छात्र समाज के दिशा निर्देशक उच्च कोटि के व्यापारी उद्योगपति लेखक साहित्यकार राजनीति कार बन पाते हैं शिक्षकों की ओर अभिप्रेरित हो जाते हैं वह शिक्षक जगत में या समाज के अन्य जगत में सेवा दाता बन जाते हैं । परंतु जो मित्रों की ओर ज्यादा अभिप्रेरित हैं और उनकी मित्र मंडली भी अच्छे लोगों की है तो वह मित्रों की संगत से अच्छी निर्माणात्मक दिशा की ओर चल पड़ते हैं यदि मित्रों की मंडली संगत अच्छी नहीं है तो वे विनाश आत्मक दिशा अपराध जगत की ओर चल पड़ते हैं। ऐसे में शिक्षा को मात्र स्कूली शिक्षा तक सीमित करके शिक्षा को छोटा ना समझते हुए शिक्षा के प्रति दायरे को बढ़ा करते हुए हम अपनी सोच को यदि लर्निगमाइंड या सतत शिक्षा का बना लेते हैं अर्थात इस दुनिया में हमें प्रत्येक जीव प्रत्येक मनुष्य कुछ ना कुछ सिखा रहा है । हम सभी से कुछ ना कुछ सीख रहे होते हैं । अब यह बात अलग है कि हमने क्या कुछ अलग सीखा जो उपयोगी था या हमारे लिए अनुपयोगी निरर्थक सिद्ध हुआ ।
इस सीखने की प्रक्रिया में यदि मनुष्य अच्छे आध्यात्मिक गुरु के संपर्क में आ जाते हैं जो उन्हें चिंतन मनन की मौलिक साधनाएं विधि सिखा देते हैं जिससे उनका अपने निजी जीवन संचालक मस्तिष्क के अवचेतन मन से संपर्क करना आ जाता है । तो ऐसे अवचेतन मन से नियंत्रित संपर्कित छात्र अपने जीवन में सबसे अधिक प्रगति करते हैं । वे छात्र यदि कहीं भटकते हैं गलती करते हैं तो ऐसे में उन्हें उनके अवचेतन मन से आने वाली निजी अंतर चेतना आवाज समय-समय पर रोक कर उचित दिशा में मार्ग निर्देशित करती रहती है । इस प्रकार से यह सामान्य लोगों और छात्रों की लीक से हटकर अपने मंन की अवचेतन मन की बात को सुनते हुए अपने मन के अवचेतन स्तर से जीने वाले छात्र अपने जीवन में अधिकतम प्रगति करते हैं । परंतु कुछ लोग इनसे भी ऊपर होते हैं जो अपने अवचेतन मन को नियंत्रित करना अपने अवचेतन मन को आवश्यक निर्देश देकर नियंत्रित करना सीख जाते हैं । उनमें से नियंत्रित अवचेतन मन मस्तिष्क वाले छात्र और अधिक तरक्की करते हैं परंतु जो छात्र अपने मन के सुपर चेतन स्तर सुपर ईगो से जीते हैं वे छात्र समाज के संचालक फरिश्ते और सर्वोत्तम उपयोगी नागरिक बनते हैं । इस प्रकार से शिक्षा में मस्तिष्क नियंत्रण विचार नियंत्रण की विधा का महत्व सबसे अधिक और सर्वोपरि है जिसके आधार पर हमारा विवेक कार्य करता है।
यह हमारी निजी विवेक पर निर्भर करता है इसमें हम यदि सुनना समझना सोचना और बोलना इस प्रक्रिया को सही तरीके से सीख जाते हैं जिसे ज्ञान मार्ग कहा जाता है । जिसे सुने सबकी करें मन की ,, तभी हम सही मायनों में शिक्षित हो पाते हैं । अन्यथा दूसरे लोगों के हर किसी की बात को ध्यान देकर सुनने के बाद उसे ज्यों का त्यों अपनालेने पर वह उसकी बात हमारे दिमाग में बैठती चली जाती हैं , और उसके बाद निरर्थक बातों की अधिकता के कारण हमारा दिमाग निरर्थक बातों पर आधारित निरर्थक क्रिया कलाप के अनुसार अनियंत्रित निर्थक व्यवहार करने लगता है । जिससे हम समाज में परिवार में फेल होते दिखाई देते हैं । इस फेल होने की प्रक्रिया से बचने के लिए शिक्षा का अहम पक्ष सेल्फ माइंडसेटिंग या अपने दिमाग की अपने आप सेटिंग करना और सैल्फ ब्रेनवॉश आना चाहिए यह बहुत जरूरी है । यदि सेल्फ माइंडसेटिंग का फंडा हमारे दिमाग में आ जाता है , और हम अपने दिमाग को अपने हिसाब से सेट करना सीख जाते हैं । तो हमारे दिमाग पर दूसरों का शब्दों का जादू प्रभाव नहीं चल पाता ।। ऐसे में हम अपने जीवन में अधिकतम तरक्की करते हैं , परंतु जो लोग अल्प शिक्षित हैं जिनके परिवार में शिक्षित नहीं हैं अगर उन्हें अपनी तरक्की करनी है तो ऐसे में उन्हें दूसरों के शब्दों को ग्रहण करना उनकी मजबूरी है , उनका विकास दूसरे लोगों को देखकर उनके प्रेरणा शब्दों को सुनकर होता है । इन दूसरे लोगों के शब्दों को ग्रहण करते समय हमें इस बात का खास ध्यान रखना पड़ता है । हमें जो दूसरे लोग शब्द दे रहे हैं क्या वह अपराधी मनोवृति के लोग हैं या सामान्य श्रेष्ठ लोग हैं , या असामान्य श्रेष्ठ लोग हैं या असामान्य सामान्य प्रकार के अपराधी सोच के भ्रमित करने वाले धुर्वे धुर्रा धूर्त राजनीतिक लोग हैं । ऐसे में हम अपनी तरक्की सिर्फ उन धार्मिक लोगों के विचारों के ऊपर आधारित होकर कर सकते हैं । जिनकी सोच सामान्य या असामान्य रूप से श्रेष्ठ लोगों की श्रेणी में होती है ।।
ऐसे में माइंडसेटिंग में हमें इस बात का भी विशेष ध्यान रख कर के हमें उन लोगों के विचारों को अहमियत नहीं देनी चाहिए , जिन लोगों के विचार निरर्थक हमें भ्रमित करने वाले किंकर्तव्यविमूढ़ किनकर बनाने वाले हैं । हमें समाज उपयोगी विचार देने वाली लोगों के विचार सुनने चाहिए परिवार के उपयोगी लोगों के विचार सुनने चाहिए तभी हम अपने विचार विश्लेषण द्वारा दूसरों के विचारों से भी लाभ उठाकर तरक्की कर सकते हैं । विचारों की प्रक्रिया श्रृंखला उस दूध के समान होती है , जिसमें बहुत अधिक परिमाण में पानी अल्प परिमाण में पोषक वसा आदि तत्व होते हैं । ऐसे में हम अपना ध्यान मात्र मानसिक पोषण विचारों (पोषक प्रोटीन और वसा पर रखना चाहिए ना कि पानी पर क्योंकि पानी और पोषक प्रोटीन भी मट्ठा के रूप में बाहर निकल जाती है ) इस प्रकार से मक्खन और घी के रूप में हम न्यूनतम उच्च उत्तम विचारों का संग्रह अपने पास कर पाते हैं ।
इसी बात को ध्यान में रखते हुए हमें शब्दों के प्रति अत्यंत संवेदी और जागरूक रहते हुए शब्दों को ग्रहण करने सुनने से पहले जागरूक होकर गौर करके वक्ता को देखकर ही वक्ता के शब्द सुनने चाहिए कि वक्ता भूत राजनीतिक है या सच्चा धार्मिक है ।। इसी बात को हम और आगे बढ़ाते हुए अपनी शिक्षा को जो स्कूल में शिक्षा ले रहे हैं उसमें भी संवेदी होकर स्कूल में दाखिल होते समय आगे के लेख को पढ़ते हुए :---- जागरूक होकर स्कूल में जागरूक रहना चाहिए कि स्कूल में शिक्षा के पांच प्रकार की शिक्षा में से कौन-कौन सी शिक्षा में दी जा रही है जिसमें से हम केवल 1 आदर्शवादी शिक्षा को अपने लिए ग्रहण करें ,2 प्रकृति वादी शिक्षा को दूसरों के लिए ग्रहण करें ,3 प्रयोजनवादी शिक्षा को समाज के लिए ग्रहण करें , 4 यथार्थवादी शिक्षा को बोलने दूसरों सुनाने के लिए संयम संज्ञान से ग्रहण करें , 5 आदेशात्मक अवसरवादी शिक्षा को अफसरों के अनुसार उपयोग करें ॥ यदि हम शिक्षा संस्थानों में स्कूलों में इस बात का विशेष ध्यान रखेंगे तभी हम शिक्षा को सही मायनों में समग्र रूप से ग्रहण करते हुए अपने जीवन को सिद्ध सार्थक बनाने में कामयाब हो पाएंगे ।
वर्तमान समय में पांच प्रकार के विद्यालय अनुभव अनूभूतियाँ किए गए हैं । जो वासना ,कामना धर्म धारण , कर्म विधि ,कर्म बंधन , शिक्षा स्थानांतरण , शिक्षा पद्धति , शिक्षा के गुण नियंत्रण के अनुसार अनुभव किए गए हैं ।
1:- आदर्श वादी शिक्षा यह शिक्षा ब्रह्मवाद के अनुसार या ईश्वरीय चैतन्यता विधान नियम आदर्शवाद के अनुसार संचालित होती है । जिसमें वासना संस्कार भाव जो जीव के निजी चेतना में संचित रहते हैं । वह उत्तम शिक्षा के प्रभाव से बाहर निकल कर प्रस्फुटित होते हैं तो अधम /पतनकारी शिक्षा प्रभाव से दवे के दावे रह जाते हैं । इस शिक्षा में धर्म कर्म भाव जीव की आवश्यकता के अनुसार निश्चित है इस प्रकार की शिक्षा में शिष्य का स्थान प्रमुख गुरु का स्थान द्वितीय है । इसमें शिष्य अपनी रुचि की और आवश्यकता के अनुसार अधिकतम अधिगम करता है । इस प्रकार की शिक्षा ही मनुष्य को जीवन में अधिकतम प्रगति विकास कराने में सक्षम है यह शिक्षा सार्वजनिक सत्य भौतिक * सत्य नीति * कथन पर आश्रित है । जो लोग अपने निजी जीवन में सत्य को जितने अंश में निजी तौर पर तथा परिवार में संचित करते हैं वह उतनी ही तरक्की कर के अगले स्तर में चले जाते हैं। जो लोग सत्य को नहीं स्वीकार करते सत्य से बचते हैं वह अपने उसी जीवन स्तर में बने रहते हैं जिसमें वह पैदा हुए थे ।।। इस शिक्षा की कर्म विधि में शिक्षा के दोनों पूरक सोपान गुरु और शिष्य को एक दूसरे के हितों को देखते हुए उनकी क्षमता पात्रता योग्यता दक्षता क्षमता के अनुसार शिक्षा दी जाती है । जिसका परिणाम अधिकतम अधिगम के रूप में आता है । इसमें कर्म बंधन का नियम दोनों पूरक गुरु शिष्य सोपानों /चरणों में गुरु प्राण या नर समान दाता भाव शिष्य इंद्री या नारी ग्रहणकर्ता भाव समान शिष्य का महत्व होता है । यह शिक्षा * देवत्व विधि शिक्षा पद्धति शिक्षा * कही जाती है जिसमें गुरु और शिष्य के मन में, कर्म में, धर्म में, वचन में हिंसा की संभावना न्यूनतम होती है यह शिक्षा आदर्श वादी शिक्षा अहिंसा वादी शिक्षा कही जाती है। यह आदर्शवादी शिक्षा नीति प्रधान होती है जो समाज के 90% लोगों के विचारों के अनुसार 90% लोगों को संतुष्ट करती है परंतु 10% लोग अति विकासवादी विचारणा के कारण इससे असंतुष्ट रहते हैं।
परंतु वर्तमान समय के परिपेक्ष में देखते हुए यह आदर्शवादी शिक्षा मंदिर वादी शिक्षा मनुष्य को मूर्ख बनाने की ओर धूर्त लोगों का एक कदम बन गया है जिसमें साधारण मनुष्य में ईश्वर उचित गुण भरने का प्रयास किया जा रहा है जोकि असंभव है मनुष्य जीव होने के कारण किसी भी स्थिति में पूर्णतया ईश्वर नहीं बन सकता यदि वह ईश्वर होता तो जीव अवस्था में जन्म लेकर पैदा ना होता परंतु अवतारवाद के सिद्धांत से इससे सही सिद्ध करने का प्रयास किया गया है जो उचित नहीं है । साधारण लोग को सच और इमानदारी का भयंकर पाठ पढ़ा कर उसमें ईश्वरयता लाने का प्रयास किया जाता है। जिससे वह मनुष्य स्वयं को ईश्वर बनने समझने के फेर में सब को नियंत्रित करने में लग जाता है। उसमें अकारण सभी से लड़ाई झगड़ा करने , संघर्ष करने, सभी को नियंत्रित करने का ईश्वरीय गुण आने की सोच बन जाती है जो असंभव है । जबकि प्रकृति में वास्तविक जीवन में जीव का ईश्वर बन्ना मिथ्या कल्पना है इस मिथ्या कल्पना के चलते लोग धूर्तता पूर्ण जीवन प्रणाली अपनाते हैं दूसरों को सत्य मार्ग पर चलने का आदेश निर्देश देते हैं जबकि वह अपने निजी जीवन में उतने ही ज्यादा सत्य से दो असत्य की ओर चलते हुए लक्षित होते हैं । इस आदर्श वादी शिक्षा के संचालक लोग अपने स्तर पर अपनी भ्रष्टता दुष्टता दूसरों को धोखा देना लक्ष्य से भ्रमित करने में कोई कमी नहीं छोड़ते हैं ।
2:- यह शिक्षा प्रकृतिवाद या इंद्र वादी भावके रूप में जानी जाती है । जो शिक्षा में विस्तार वाद या बृहस्पति की सोच सूचक होती है यह शिक्षा रीति रिवाज प्रधान शिक्षा होती है। इस शिक्षा में प्रजा में से आधे लोग सदैव राजा या शासक हित प्रधान होते हैं आधे लोग स्वहित प्रधान विद्रोही कहे जाते हैं इस प्रकार से यह समाज की भ्रम व्यवस्था की शिक्षा कही जाती है जिसमें लोग सदैव भ्रम में रहते हैं । प्रकृति भी सभी जीवो को नियंत्रित करने के प्रयास में उन सभी जीवों को जन्म देकर मौसम से पीड़ित करने मारने में लगी रहती है । जो जीव प्रकृति की मार उष्णन शीतलन को सहन करने में समर्थ हो जाते हैं । वे सक्षम और समर्थवान कहे जाते हैं , जो प्रकृति की मार को सहन नहीं कर पाते वह अकाल मौत मर जाते हैं क्योंकि वह जीवन जीने में सक्षम नहीं होते हैं ।
प्रकृति के द्वारा सृष्टि नियंत्रण के गुण को जो लोग समझ सीख जाते हैं वह समाज के दूसरे लोगों को नियंत्रित करने के लिए राज धर्म अपनाकर समाज के निजी लोग और दूसरे समाज के दूसरे लोग सभी को नियंत्रित करने के लिए राजधर्म से तरह-तरह के नीति नीति नियम बनाकर समाज संचालन करने में लगे रहते हैं ।
यह प्रकृति वादी शिक्षा राज प्रवृत्ति के लोगों द्वारा जनता के लोगों को नियंत्रित करने के लिए शासक वर्ग के द्वारा लोगों को नियंत्रित करने की दिशा में उनको मानसिक गुलामी की ओर ले जाती है । दुष्ट क्षत्रिय लोगों के द्वारा अपनी सभ्यता संस्कृति का प्रचार-प्रसार करने के लिए दूसरी प्रकार की सभ्यता संस्कृति को नष्ट करने के लिए संस्कृति के युगपरुष बनने के प्रयास , संस्कृति के संचालक इंद्रपुरुष बनने के प्रयत्न , संस्कृति के रक्षक राज पुरुषओं के कोशिश द्वारा संचालित की जाती है । इसमें शिक्षा का धर्म भय से प्रजा नियंत्रण तथा प्रजा को मूर्ख बनाना प्रधान होता है । इसकी कर्म विधि पशुज प्रकार की मारा पीटी /मारकाट से दूसरे जीवों को नियंत्रित करने की होती है । इसमें कर्म बंधन का गुण या शिक्षा के पूरक सोपान गुरु स्वामी के रूप में शिष्य सेवक के रूप में अपने अपने दायित्व को स्वीकार करते हुए शिक्षा ग्रहण करते हैं । यह शिक्षा क्षत्रिय प्रकार की शिक्षा कही जाती है । जो हिंसा पर आधारित होती है इसमें गुरु शिष्य का अधिकतम शोधन करने के लिए ताड़न या मारा पीटी पर ज्यादा ध्यान रखते हैं । यह शिक्षा प्रकृति वादी शिक्षा भी कही जा सकती है जो सर्वश्रेष्ठ जीवितम के जीवन लक्ष्य के अनुसार चलती है । इसमें गुरु शिष्य को सर्वश्रेष्ठ बनाने के लिए उन संस्कृति मूल्यों के वाहक शिष्यों संस्कृति मूल्यों के वाहन बनाने के लिए प्रचार प्रसार के लिए मारपीट विधा से उष्णन करता है । इस प्रकार की प्रकृति वादी शिक्षा से मारपीट की शिक्षा से शिष्यों का मूल्य के स्थान पर अवमूल्यन पतन होता है जिससे शिष्य की प्रगति अवरुद्ध हो जाती है या वह विपरीत मति गति से उल्टा चलकर पतन के गर्त में लुप्त हो जाता है।।
3:- प्रयोजन /प्रयोग वादी शिक्षा इस प्रकार की शिक्षा पद्धति में वैश्य वासना भाव मतलब मंत्वय आर्थिक विकास समृद्धि प्रधान होता है । जिसके अंतर्गत शिक्षा का उद्देश्य गति और परिणाम निश्चित नियंत्रित करने वाले लोगों की सोच वणिक या व्यापारी प्रकार की होती है । इस प्रकार की शिक्षा का धर्म आधार लालच है । इस प्रकार की मतलब शिक्षा में लोगों में अपने अपने निजी संविधान अपने अपने कुल के अनुसार बनाने की होड़ बन जाती है जिससे समाज में परिवार में निजी संविधानओं की बहुलता के कारण तरह तरह की सामाजिक * कुरीतियां * उत्पन्न हो जाती हैं यह प्रयोजनवाद ईशिक्षा कभी गुरु के हित में जाती है तो कभी शिष्य के हित में जाती है इस शिक्षा में एक पक्षीय हित साधन होता है इस शिक्षा में सर्व हित साधन संभावना का सामाजिक शिक्षा विकल्प स्पष्ट होता है जिससे इसे धूर्तता पूर्ण शिक्षा कहा जाता है। जिसमें इसके दोनों पूरक सोपान इसके दातागुरु व्यापारी तथा शिष्य ग्राहक दोनों की मनोवृति लालची होती है ।
लोभी गुरु - लालची चेला , करें नर्क में ठेलम् ठेला ः
इसमें गुरु शिष्य का शोषण करने की मनोवृति रखता है और शिष्य गुरु से मुफ्त में ज्ञान लेने की सोच रखता है । जिससे यह प्रयोजन वादी मतलबी शिक्षा अपना परिणाम न्यूनतम देती है। इसके दोनों पूरक सोपान गुरु शिष्य घाटे में रहते हैं । गुरु अपने ज्ञान को पूर्ण रूप से शिष्यों को दे नहीं पाता ,शिष्य गुरु के ज्ञान को अपनी अधिकतम क्षमता से ले नहीं पाता ।
गुरु शिष्य दोनों अपने अपने उद्देश्यों के प्रति लक्ष्यों के प्रति ध्यान रखते हुए इस शिक्षा विधि से शिक्षा प्राप्त करते हैं । यह शिक्षा विधि की कर्म विधि मनुज प्रकार की है । जिसमें कर्म बंधन क्षणिक औपचारिकता मात्र होता है । जिसमें गुरु व्यापारी छात्र ग्राहक और दोनों ही धन आश्रित मनोवृति के होते हैं । इस प्रकार की शिक्षा का नियंत्रण धन के द्वारा , धनकुबेर ओं के द्वारा,, धनी लोगों कारपोरेट वर्ल्ड के हित में किया जाता है ।
4:- यह यथार्थवादी शिक्षा भीड़ वाद आशीर्वाद विघटन वादी शिक्षा विधि पर आश्रित है जो यजुर्वेद के अध्याय 30 के प्रथम से अंतिम श्लोक वृत्ति भाव निरुपण पर शुद्ध वासना भाव से युक्त होती है। जो प्रत्येक जीव के सम्यक विकास के अनुसार आधारित होती है यदि प्रत्येक जीव का पूर्ण विकास होगा तो फिर जीव क्यों कर सामाजिक अवस्था में रहेगा ? ऐसे में यह है समाज विघटनकारी शिक्षा कहने को तो सबका साथ सबका विकास # पर आधारित कही जाती है परंतु यह समाज का ,परिवार का धर्म-कर्म स्तर तक नष्ट कर देती है जब प्रत्येक मनुष्य अपना अपना निजी विकास करने की सोचने लगता है तो वह दूसरों के विनाश में जुट जाता है जिससे पहले घर टूटते हैं परिवार टूटते हैं , कुल टूटते हैं जातियां टूटती हैं धर्म टूटते हैं अंत में राष्ट्र भी टूटने लगते हैं । इस प्रकार की शिक्षा से समाज से लेकर राष्ट्र तक सर्वत्र अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है कोई किसी के नियंत्रण में रहना पसंद नहीं करता कोई किसी की रुचि अभिरुचि का ध्यान नहीं रखता, कोई किसी की भावना इच्छाओं को समझने की कोशिश नहीं करता सभी अपने आप को जिम्मेदारियों से मुक्त रखते हुए ऐसे समाज की इच्छा रखते हैं कि उन लोगों का ध्यान मान सम्मान समाज के दूसरे लोग रखें लेकिन वह समाज के लोगों का ध्यान रखें ना रखें यह उनका निजी जीवन विकल्प है जो पूर्णतया दायित्व हीन है । परंतु उन्हें इस दायित्व हीन अवस्था में सभी सामाजिक सुविधा सुरक्षा के समस्त अधिकार सुरक्षित निर्बाध बने रहने चाहिए।
इस यथार्थ वादी शिक्षा का धर्म कर्मपरिणाम अनुभव संग्रह आधारित होता हैं इसके कर्म विधि गुरु स्वयं दायित्व हीन परंतु दूसरे लोगों शिष्यों को उनका दायित्व देने समझाने वाले आप ही सर या अधिकारी मनोवृति के लोग होते हैं , परंतु शिक्षा ग्रहण करने वाले शिष्य स्वयं दायित्व हीन होते हैं । इसका कर्म बंधन मजबूरी है जिसके अंतर्गत गुरु अपने प्रशासनिक अधिकारियों के नियंत्रण में रहते हुए छात्रों को शिक्षा देते हैं तो छात्र अपने कुल परिवार के नियंत्रण में रहते हुए बेमन से ऐसी शिक्षा ग्रहण करने को बाध्य होते हैं ।
इसमें गुरु अधिकारी मनोवृति का तथा छात्र बेगारी मजदूर मनोवृति का होता है । इसका नियंत्रण अधिकारीगण के द्वारा होता है इसके दो प्रकार हैं एक शूद्र वादी शिक्षा जिसमें शिष्य /लोग दुखी मन से शिक्षा ग्रहण करके दुखी परिणाम देते हैं यह यथार्थवादी शिक्षा जो छात्रों और लोगों के मन में भ्रम उत्पन्न पूर्ण करने वाली परिणाम हीन शिक्षा कही जा सकती है। जो औपचारिकता पूर्ण वार्तालाप से शुरू और बंद होती है । जिसका उद्देश्य स्पष्ट नहीं होता जिससे शिक्षित होने वाले छात्र शूद्र मानसिक अवस्था में सदैव शोक पूर्ण & रुद्र , विपिन गरीब दरिद्रता निर्धनता अवस्था में रहते हैं यह छात्र सुख शांति से दूर दिशाहीन स्थिति में सदैव निजहित चिंतन रत रहते हैं । परंतु इन छात्रों में अपने लिए भी सोचने की क्षमता नहीं होती । कारण कि इनमें सोचने की क्षमता व्यापक अध्ययन भ्रम पूर्ण परिणाम और अनुभव से आती है । जब यह अवस्था आती है उससे पहले यह छात्र शिक्षण संस्थानों से बाहर निकल जाते हैं । यह छात्र साक्षर होते हैं परंतु ज्ञानी नहीं ।। जो सदैव अशांत मानसिक अवस्था में शोक और रौद्र अवस्था में रहते हैं । यह नौकरी से मजदूरी से दूसरे के आधीन रहकर यह कर्म करते हैं । परंतु इनके कर्म का फल इनके अधिकारी अधिक भाव में शोषण कर जाते हैं ।
दूसरा विशिष्ट अशुद्रता का प्रकार है जिसमें छात्र सभी वर्णों के अपने-अपने वर्ण के अनुसार बिना कर्म किए धन अर्जन करना सीख जाते हैं जिसे शिक्षा से समाज में अपराधीकरण हो जाता है । ऐसी अशुद्र लोग या छिपे हुए शुद्र लोग जो शिक्षा करने तो स्कूल में जाते हैं परंतु शिक्षा को सही रूप से नहीं सीख पाते । अपितु वे :-
धनं धर्मम् आधारं , धनं परं सुख साधनम् बिना कर्मम् उद्देश्य पूरितं
का मंत्र आत्मबोध प्रज्ञा विधि से बिना गुरु के पढ़ाई सीख जाते हैं उनके दिमाग में धन के लिए विशेष स्थान होता है वह जीवन का लक्ष्य धन को समझते हैं और आजीवन येन केन प्रकारेण से धन ऐंठने में लगे रहते हैं । जैसे धूर्त या अब्राह्मण लोग मंदिर में मूर्ति स्थापना करके लोगों को मूर्त दर्शन कराकर बिना ज्ञान शिक्षा दिए लोगों से हाथ उठाकर आशीर्वाद मुद्रा से सम्मोहन करके धन उठाते हैं । अक्षत्रप लोग सदैव समाज के लोगों को भय देकर उनसे हफ्ता वसूली, मासिक वसूली, वार्षिक वसूली के द्वारा बिना कर्म के धन उठते हैं , उन लोगों की सुरक्षा भी नहीं करते । दूसरी ओर गुप्त या अवैश्य लोग व्यापार में मिलावट करना , कम तोलना आदि अनेक विधि से ग्राहकों को ठगते रहते हैं। हद तो अशूद्र मजदूर लोग कर देते हैं जो मालिक से पैसा लेकर भी उसका काम नहीं करते और बिना कर्म किए ही मालिक से ज्यादा से ज्यादा मजदूरी लेने के लालच में लगे रहते हैं ।
यह शिक्षा का सर्व से निकृष्टतम परिवार समाज के लिएअधम गति दायक अनीति का प्रकार कहा जाता है । जो सर्वत्र उपद्रव उत्पात पैदा करने वाला शिक्षा मंत्र है जिसमें समता समानता का धूर्तता पूर्ण उद्देश्य निहित है । कारण कि समाज मनुष्य प्रकृति तभी तक संचालित जीवन से चल रहे हैं जब तक वह अपूर्ण है यदि वे पूर्णता प्राप्त करने लगते हैं तो उनकी गति मंद मंथर समाप्त हो जाती है ।
जिसमें सभी शिक्षित अशिक्षित लोग परम दुखी मन से , परम दुखी करने वाला कर्म मंत्र धर्म- हीन, कर्म -हीन , विपरीतमति , विपरीत- परिणाम , धूर्तता , छल कपट प्रपंच मंत्र से समाज परिवार को दुखी करना और स्वयं दुखी रहना है ।
5:- नौकर शाही शिक्षा आदेशवादी शिक्षा संभावना उत्पन्न करने वाली शिक्षा मीटिंग वाली शिक्षा अधिकारी शिक्षा यह शिक्षा का पांचवा प्रकार कहा जाता है जो अफसर के आदेश निर्देश के अनुसार संचालित होती है अफसर स्वयं शासन के सर्वोच्च कर्मचारियों /उच्च अधिकारियों के द्वारा आदेश निर्देश के अनुसार संचालित होते हैं । इस शिक्षा के द्वारा सभी के मन में शिक्षा के परिणामों को लेकर शंका संभावनाएं बनी रहती हैं । परंतु इस शिक्षा में सभी कार्य में सहयोग करने वाले लोग असत्य आंकड़े भेज करके अपने अपना दायित्व पूरा कर लेते हैं या अपना अपना आपा बचा लेते हैं । यह बाबू वादी शिक्षा कही जाती है जो मीटिंग या गुप्त वार्ता निर्देश विधि के द्वारा चलती है यह पूर्णतया गोपनीय प्रकार की शिक्षा कही जाती है जिसमें धूर्तता दुष्टता की पराकाष्ठा होती है इसके परिणाम व्यक्ति के सम्मुख शीघ्र आ जाते हैं जब प्रिय परिणाम आते हैं तो व्यक्ति खुश होता है और जब अप्रिय परिणाम आते हैं तो व्यक्ति दुखी होता है या व्यक्ति को दंडित किया जाता है उसे आर्थिक धन वसूला जाता है उसका स्थान परिवर्तन कर दिया जाता है या उसकी सेवा समाप्त कर दी जाती है ।