जैविक ऊर्जा रूपांतरण नियम क्या है क्या यह भौतिक ऊर्जा / रासायनिक रूपांतरण नियम से भिन्न है ?

जैविक ऊर्जा रूपांतरण नियम लगभग भौतिक ऊर्जा रूपांतरण  भौतिक रूप से कार्य करने के दौरान एक ऊर्जा का दूसरी ऊर्जा में बदलना जैसे यांत्रिक ऊर्जा का टरबाइन की सहायता से विद्युत ऊर्जा में बदलना और रासायनिक ऊर्जा रूपांतरण विभिन्न प्रकार के पदार्थ के आपस में परस्पर मिश्रित होने पर कोई एक नया पदार्थ बना या दो पदार्थों का आपस में एक दूसरे के अति निकट होते हुए साथ-साथ रहना नियम के जैसा ही है, जैविक ऊर्जा रूपांतरण प्रक्रिया के द्वारा दो विभिन्न नर नारी जीवन के लैंगिक युग्मकों का आपस में मिलकर एक नए शरीर धारी प्राणी का उत्पन्न होना जैविक ऊर्जा रूपांतरण नियम है जिसमें प्रकृति में नर जीव नर युग्मक अधिक ऊर्जावान होता है परंतु नारी जीव नारी युग्मक अल्प ऊर्जावान होता है ।। 
         इस ऊर्जा रूपांतरण के ऊर्जा स्थिरीकरण के नियम के अनुसार भौतिक ऊर्जा लगभग अनियंत्रित होती है , रासायनिक ऊर्जा अर्ध नियंत्रित होती है ,, और जैविक ऊर्जा अधिकतम नियंत्रित होती है ।  सभी सजीव जीवो के शरीर उनके शरीर में स्थित जैविक ऊर्जा के आधार पर बने होते हैं ।  यह जैविक ऊर्जा समय-समय पर भौतिक कार्य करने के दौरान या अवस्था परिवर्तन की आवश्यकता के अनुसार घटती बढ़ती रहती है , जिससे सजीवों के शरीर  बढ़ते . घटते . बनते . बिगड़ते, नष्ट होते रहते हैं  ।  जिन लोगों /जीवोंके शरीर में  इस  जैविक ऊर्जा का उपयोग न्यूनतम होता है उनके शरीर अधिकतम समय तक सक्रिय निरोग  युवा  रहते हैं उनके बाल अधिकतम  आयु की सीमा तक काले बने रहते हैं ।  उनकी त्वचा के मेलेनिन कोशिकाएं पूर्ण परिमाण में या अल्प परिमाण में सुरक्षित रहती  हैं ।
       परंतु जो लोग अपनी इस जैविक ऊर्जा का पूर्ण क्षमता से दोहन किया करते हैं । अपनी जैविक ऊर्जा का  अधिकतम उपयोग करते हैं उनके शरीर की मेलेनिन कोशिकाएं जैविक ऊर्जा की कमी पड़ जाने के कारण  बननी कम हो जाती हैं । जिससे उनके बाल सफेद होने लगते हैं । जब वह अपनी जैविक ऊर्जा का सामान्य क्षमता से अधिकतम उपयोग करने लगते हैं।  तो उनकी त्वचा के मेलेनिन कोशिकाएं तक  धीरे-धीरे  बनना बंद हो जाती हैं ।  यहां तक कि पहले उनके केश अधिक मात्रा में सफेद होने लगते हैं । वह समय से पहले वृद्ध दिखने लगते हैं ।।             
          किसी भी मनुष्य के बालों का सफेद होना उसके अत्यधिक मानसिक चिंतन प्रवृत्ति को व्यक्त करता है । कि वह मनुष्य अपनी जैविक ऊर्जा का अधिकतम उपयोग मानसिक चिंतन में कर रहा है। जिससे उसके शरीर की अन्य कोशिकाओं की अधिकतम जैविक ऊर्जा उपयोग /दोहन क्षमता से अधिक मात्रा में होने से मैलैनिन कोशिकाओं को स्वस्थ रहने के लिए अपना पिगमेंटेशन /रंग बनाने के लिए पर्याप्त जैविक ऊर्जा  A.T.P # A.D.P. ऊर्जा पैकेट निर्माण प्रक्रिया सामान्य नहीं अपितु ऐसा मान्य है।
 जो प्रोटीन संश्लेषण के दौरान आवश्यकता अनुसार सम्यक रूप से उपलब्ध नहीं मिल पा रही है  ।  जिससे उसके शरीर की अन्यमैलैनिन कोशिकाएं ,अस्थि कोशिकाएं ,दंत कोशिकाएं लिंगीय कोशिकाएं के एक निश्चित समय पश्चात नष्ट होने के बाद फिर से दोबारा मरम्मत के द्वारा जल्दी नहीं बन पा रही है । जिससे शरीर अपना कार्य पूर्ण निष्ठा से सही तौर पर नहीं कर पा रही हैं ।  जिससे उसकी मैलैनिन कोशिकाओं के अलावा शरीर की अन्य आवश्यक कोशिकाएं जैसे अस्थि कोशिका त्वचा कोशिका रक्त कोशिका आदि सही रूप से नहीं बन पा रही है । उनकी अधिकतम संख्या नष्ट होती जा रही है वे न्यूनतम प्रमाण में बन पा रही है। परंतु अधिकतर जैविक  कोशिकाएं शीघ्रता से नष्ट होती जा रही हैं ।  इन कोशिकाओं के शीघ्रता से नष्ट होने से मनुष्य आयु से पहले वृद्ध होने लगता है या वृद्ध दिखने लगता है । यदि मेलेनिन कोशिकाओं के अलावा अन्य आवश्यक कोशिकाएं  नहीं बन पाती है । कोशिकाओं में लुप्त होने से ,  या कभी कभी मैलैनिन कोशिकाओं को श्वेत रक्त कणिकाओं द्वारा भक्षण करने से त्वचा में सफेद दाग या ल्यूकोडर्मा जैसी अवस्था दिखने लगती है ।जो केवल गेहुआ रंग के लोगों में  या मोडिफायर जीन की अधिक सक्रियता मैलैनिन संश्लेषण कम होने पर या मैलैनिन संश्लेषण अनियंत्रित हो जाने से दिखाई देती है । जबकि यह काले लोगों में नहीं दिखाई देती परंतु एलबिनो लोगों में इस अवस्था का दिखना का कोई औचित्य नहीं है।।
       इस जैविक ऊर्जा का दूसरा महत्वपूर्ण उपयोगी पक्ष जीवन के संतान उत्पत्ति क्षमता से देखा जाता है जिन जीवों के शरीर में पर्याप्त जैविक ऊर्जा संचित होती है केवल वही उचित परिमाण में संतान उत्पन्न  कर पाते हैं । जिनके शरीर में जैविक ऊर्जा उत्पादन सुचारू रूप से काम नहीं करता जिसके कारण उनके जनन अंग सामान्य क्षमता युक्त ना हो करके अल्प क्षमता युक्त या निष्क्रिय रह जाते हैं वे जीव संतान उत्पन्न नहीं कर पा ये है। परंतु कुछ अनावश्यक रूप से मोटे लोगों और स्त्रियों में देखा गया है कि उनके शरीर के अंदर यह जैविक ऊर्जा सिस्टम ठीक से काम नहीं करता उनकी अधिकतम जैविक ऊर्जा उनके शरीर के सुरक्षा निर्माण में प्रयुक्त होती रहती है ।  जिससे उनके शरीर के ऊपर जाकर अनावश्यक रूप से वास संचित होती रहती है या कुछ पहलवान को अपने शरीर में अनावश्यक रूप से प्रोटीन संचित करते रहते हैं जिससे उनके जनन अंगों को सामान्य जैविक ऊर्जा उपलब्ध नहीं हो पाती जिससे उन मोटे लोगों और पहलवान लोगों के जनन अंग उतने सक्रिय नहीं रह पाते जितने सामान्य लोगों के जनन सक्रिय होते हैं।
        जैविक ऊर्जा रूपांतरण नियम के साथ-साथ जैविक ऊर्जा का संचालन संवहन विकिरण नियम भी पूरी तरह से लागू होता है जिसके अनुसार कोशिकाएं सही स्थान पर बनने के बाद पहुंचती रहती हैं  । 
            जैविक ऊर्जा रूपांतरण का नियम सिर्फ कोशिकाओं तक ही सीमित नहीं समझना चाहिए अभी तू यह जैविक ऊर्जा रूपांतरण का नियम कोशिका निर्माण के उपरांत बने जीव शरीरों के ऊपर भी लागू होता है जिसके अनुसार जहां पर प्रारंभिक या प्राइमरी जैविक ऊर्जा हरियाली अधिक मात्रा में उपलब्ध होती है वहीं पर द्वितीय स्तरीय जैविक ऊर्जा कीट पतंग पशु पक्षियों के शरीर रूप में होती है वह उपलब्ध होती है जिसका चैतन्यता और शरीर के आकार के अनुसार शरीर में चालन होता है जिसके अनुसार  इनके शरीर की कोशिकाएं आवश्यकता के अनुसार शरीर में की चुंबकीय ऊर्जा विद्युत ऊर्जा के अनुसार जाकर शरीर के आकार को बढ़ाती रहती हैं । तो इसके संवहन नियम के अनुसार अनेक जीव आक्रमण रक्षण से प्रभावित होकर समूह बनाकर गतिशील रहते हैं  आपातकाल में अनेक जीव प्राण रक्षा संकट उपस्थित होने पर उसे स्थान से वेज पलायन करके भाग करके अलग दूर चले जाते हैं जिससे जैविक ऊर्जा का विकिरण /वितरण नियम का पता चलता है।       मेरा निजी अनुभव ,,

पशु मनुष्य की तरह वृद्धावस्था में इंद्री ही अंधे , बहरे , दंतविहीन - पोप्ले नहीं होते , जबकि मनुष्य वृद्धावस्था में इंद्री हीन अंधा , बहरा , दंतविहीन पोपला हो जाता है ! ऐसा क्यों होता है ?

मनुष्य के शरीर की दो मुख्य अवस्थाएं होती हैं, उत्साह से परिपूर्ण ऊर्जावान अवस्था और   उत्साह से हीन ऊर्जाहींन अवस्था ,   जिसे हम निराशा याने नैराश्य भी कहते हैं । जबकि पशुओं के जीवन में सिर्फ एक ऊर्जावान अवस्था होती है , पशु जीवन में कभी भी निराशा या नैराश्य अवस्था में नहीं जाते हैं । पशु अपने जीवन में जन्म लेने के बाद मरने तक अधिकतर होशो हवास में उत्साह से पूर्ण ऊर्जा पूरित रहते हैं पशु अपनी शारीरिक ऊर्जा मानसिक ऊर्जा का व्यर्थ के कार्यों में अपव्यय नहीं करते हैं। जब उन्हें जिस भी कार्य की आवश्यकता होती है वह उसी क्षण में अपनी मन ऊर्जा और तन ऊर्जा को तभी उस कार्य में प्रयुक्त करते हैं
 जैसे पशु सदैव प्रजनन कार्य में रत नहीं रहते हैं ,  वह प्रकृति के आदेशानुसार ही प्रजा धर्म या पशु कार्य में रत होते हैं ।  पशु सदैव भूखे नहीं रहते उन्हें जब भूख लगती है तो वह भोजन या मैथुन कर्म  करते हैं ।।  जबकि मनुष्य प्रजा कार्य में अपनी ऊर्जा को अकारण अपव्यय करता है,  सदैव भूखा रहता है जिसके कारण वह दूसरे जीवो को अकारण निरपराध निर्दोष होने पर भी अपने भूख व्यापार करने के लिए बिना वजह मारता रहता है और भूख का उद्यम धन के रूप में करता है । युवावस्था में आने के बाद ऐसा लगता है जैसे मनुष्य के पास सिर्फ और सिर्फ मैथुन का ही कार्य करना उसके जीवन का मुख्य उद्देश्य है वह मैथुन के लिए ही अपना जीवन जी रहा होता है । जो की बौद्धिक दृष्टिकोण से उचित नहीं है हमें अपना जीवन जीने के लिए मिला है जिसमें हम अपनी जीवन की अधिकतम समस्याओं को हल कर सके और अपने जीवन को अपने मौलिक अर्जित उद्देश्यों को पूरा करने के लिए अपना जीवन जिए।
 । इसके अलावा पशुओं में अमृत चिंतन मनन क्षमता ध्यान करने की क्षमता का अभाव /कमी  होती है ।जिससे पशुओं में मानसिक ऊर्जा अपव्यय न्यूनतम   होता है ।   जबकि मनुष्य पढ़ाई के दौरान अमूर्त चिंतन मनन और ध्यान करना अपने निजी स्मृति क्षेत्र में/ मेमोरी में हलचल वृद्धि विस्तार ,निस्तारण डीलीट करना सीखकर अधिकतम मानसिक ऊर्जा अपव्यय करता  है । ऐसे में मनुष्य के शरीर की दुर्गति का कारण उसके दिमाग की विकृत स्मृति अवस्था नैराश्य ,,  शरीर की विकृत रुग्णता अवस्था ऊर्जा हीनता है जो दुख से उत्पन्न होती है ।  जिसका कारण मनुष्य शरीर में तरह-तरह के विविध प्रकार के तरीकों से विकृत ध्यान करना पड़ता  है ।  परंतु उसे यह ज्ञान नहीं होता कि वह कैसा ध्यान करता हुआ अपना जीवन यापन कर रहा है । विकृत ध्यान के अलावा मनुष्य ज्ञान प्रक्रिया में तरह-तरह के असत्य गलत विकृत करने वाले शब्दों को भी दूसरे लोगों से स्वीकार कर लेता है जिससे उसे अक्सर कारण , अकारण मानसिक भय उत्पन्न होता रहता है । यदि उसका ध्यान ऊर्जा पूरित सकारात्मक आशावादी होता है तो उसके शरीर में निरोगता उत्पन्न होती है । यदि उसका ध्यान   निराशावादीता उत्पन्न  करता है। गलत ध्यान से दुख और पीड़ा अपने शरीर में उत्पन्न करता रहता है। जब मनुष्य दुख की अवस्था में अपने शरीर का ध्यान करने में मगन हो जाता है  ।  तो ऐसे में मनुष्य अपनी गलत ध्यान अमूर्त चिंतन अवस्था से अपने शरीर को स्वयं खराब करता रहता है । गलत ध्यान करने की प्रक्रिया में मनुष्य के शरीर में जगह जगह दर्द उत्पन्न होता है क्षेत्र अंग स्फुरण उत्पन्न होता है । इसके अलावा उस स्थान पर संचित वायु के उखड़ने से तरह-तरह की धातु उखड़ने लगती हैं और उसका वह अंग क्षेत्र अपने आप रोगी विकृत होने लगता है ।
    इसका विचार अथर्व वेद में कुछ इस प्रकार से दिया हुआ है जिसमें लिखा हुआ है आप जो भी काम कर रहे हैं तो काम करने का पता आपके दिमाग को निजी इंद्र को  होना चाहिए ।   शरीर की इंद्रियों को आपके काम करने का पता और तौर तरीका का पता नहीं होना चाहिए । नहीं तो आप के दिमाग की अवस्था के अनुसार शरीर की इंद्रियां निजी अहम् से  इंद्र के अवज्ञा करने से अपना धर्म छोड़ने लगती हैं । जैसे यदि भोजन कर रहे हैं तो ध्यान भोजन में होना चाहिए दांतो और जीभ में नहीं ।  यदि ध्यान दातों पर दांतों के द्वारा या जीभ में , जीभ  पर , जीभ के द्वारा किया जाता है , तो मुंह दिमाग की  सष्क्रिय अवस्था के कारण दंत विहीन हो जाता है । खाने में अक्सर जीभ कटने लगती है मुंह की त्वचा फटने लगती है ।।  इसी प्रकार से जब हम किसी को देखते हैं तो हमें अपना ध्यान उस दृश्य वस्तु पर दृश्य क्षेत्र पर करना चाहिए अपने दृश्य इंद्रियां नेत्रों में नहीं , परंतु हम अक्सर यह गलती दुनिया को देखने में भी कर जाते हैं जब हम किसी को देखते हैं तो देखने से पहले अपना ध्यान अपनी आंखों में लगाते हैं जो मस्तिष्क की निराशा नैराश्य दुख अवस्था के कारण काम करने से परेज करने लगती हैं । जिसस नेत्रों में इंद्री हीनता दर्शन क्षमता में कमी आदि अनेक विकृतियां आ जाती हैं ।  ठीक ऐसा ही हम सुनते समय करते हैं जब हम किसी की बात सुनते हैं तो हमें उसकी बात सीधे-सीधे प्रत्यक्ष सुननी चाहिए लेकिन हम सुनने से पहले अपने कानों को चेक करते हैं अपना ध्यान कानों पर लाते हैं और कान भी वही गड़बड़ी करने लगते हैं जो दांत जीभ आंख करती हैं । कान भी दिमाग की नैराश्य अवस्था ऊर्जा हीनता अवस्था के कारण उर्जा हीन क्षमता हीन होने लगते हैं मस्तिष्क को सहयोग नहीं करते हैं इसी प्रकार से कमोबेश यही अवस्था शरीर के संचालन करने वाली पेशयों के बारे में भी है ।  जबकि कोई भी पशु गति करने से पहले हाथ पैर की अवस्था की चेकिंग नहीं करता पशु अकारण अक्षर व्यायाम नहीं करते हैं वह व्यायाम में अपनी शारीरिक ऊर्जा का अपव्यय नहीं करते हैं ।। कहने का मतलब यह है कि इंद्रियां इंद्र की सहायक होनी चाहिए इंद्र की आज्ञाकारी होनी चाहिए जब हम इंद्रियों पर ध्यान धरने लगते हैं तो इंद्रियों में भी अहम भाव से स्वामित्व भाव उत्पन्न हो जाता है वह भी इंद्र के नियंत्रण प्राण के नियंत्रण से अपने को अलग समझकर अहंकारी होने लगती हैं । ऐसे में इंद्रियों के अतिअहं  बोध भाव से इंद्रियां इंद्र से दूरी बनाकर रहने लगती है । जिसकी पहचान यह है कि हम देख रहे हैं लेकिन दिमाग को पता नहीं । सुन रहे हैं कान को पता नहीं। खा रहे हैं दिमाग तो पता। नहीं चल रहे हैं हाथ पैरों को पता नहीं। ऐसी इंद्रियों की दूरी तय अवस्था में इंद्रियों के अति अभिमान के कारण इंद्रियां बौद्ध भीम प्रज्ञाहीन होने के कारण धीरे-धीरे अपने अतीत से क्षमता हीन होने लगती हैं ।
शरीर की सुरक्षा के लिए इंद्रियों का निजी धर्म बहिर्मुखी होना है जब तक इंद्रियां बहिर्मुखी हैं शरीर सुरक्षित है परंतु आजकल उल्टा ज्ञान देने वाले ज्ञानी गुरु जनों ने इंद्रियों के अंतर्मुखी होने पर बहुत अधिक जोर दिया है जिससे इंद्रियां अंतर्मुखी होने से इनकारी हो गई हैं और इंद्रियां और इंद्र के बीच एक अंतर आ गया है जिससे इंद्रियां इंद्र के नियंत्रण में ठीक प्रकार से नहीं रहते हुए कार्य कर रही हैं और जीव के अंदर इंद्र के ठीक होते हुए इंद्रियों के ठीक होते हुए इंद्रियों के कार्य करने की क्षमता में कमी आ गई है ऐसे में यदि हमें आरोग्य शरीर आरोग्य इंद्रियां चाहिए तो हमें भी पशुओं की तरह अपनी समस्त इंद्रियों को उनके प्राकृतिक मौलिक गुण बहिर्मुखी होने पर विशेष ध्यान देना होगा इंद्रियों को अंतर्मुखी होने से बचना रोकना होगा।
   मनुष्य की वृद्धावस्था में पशुओं से भी ज्यादा बुरी दुर्गति होने का मुख्य कारण मनुष्य का अपने इंद्र पर ध्यान कम अपनी इंद्रियों पर शरीर पर ज्यादा ध्यान को रखते हुए मनुष्य अपना जीवन जीते हैं जिससे अक्सर नकारात्मक विचारों के अधिक मात्रा में ग्रहण करने से इंद्रियां और मन भी नकारात्मक सोच के हो जाते हैं जो अपने इंद्र की आज्ञा का पालन नहीं करते जिसके कारण से आंखें अपने देखने का दायित्व ऊर्जा हीनता से समय  पहले छोड़ने लग जाती है जिसके कारण मनुष्य में अंधापन पहले आंशिक रूप में आता है धीरे-धीरे जो बढ़ता हुआ पूर्णतया अंधापन में बदल जाता है जिसके अनुसार पहले नजर धीरे-धीरे गिरती है उसके बाद एक आंख अपना काम बंद कर देती है उसके बाद दूसरी आंख भी अपना काम बंद कर देती है इस प्रकार से मनुष्य पूर्ण अमृता अवस्था में आकर शीघ्रता से यम पास में फंसकर चला जाता है कमोबेश यही हालत कानों की भी है मनुष्य के कान भी ऊर्जा हीनता के कारण धीरे-धीरे अपना धर्म छोड़ने लगते हैं जिससे मनुष्य को पहले मंदा सुनाई देना आरंभ होता है और बाद में वह पूर्ण रूप से बहरा हो जाता है इसी प्रकार से मनुष्य जब सांसारिक जीवन जीते हुए सांसारिक कर्मों का त्याग करना शुरू कर देता है तो जिस जीवन को जीने के लिए विधाता ने मनुष्य को सक्रिय पेशियां और पेशियां के लिए ऊर्जा की निरंतर व्यवस्था की है जब वह विधाता देखा है कि यह पेशीय के सक्रिय होते हुए भी हाथ पैर नहीं चलता तो विधाता धीरे-धीरे हाथ पैर की ऊर्जा में कटौती करना शुरू कर देता है जिस हाथ पैर की पेशियां समय से पहले निष्क्रिय डिजैनरेट हो जाती हैं जिसके कारण पेशीय के ऊपर की खाल लटकने लगते हैं।
   अब सबसे लास्ट में चर्चा करते हैं दांत हीनता या पोपलापन मनुष्य अक्सर खाना खाते समय अपना ध्यान भोजन पर न रखते हुए अधिकतर स्वाद के लालच में अपना ध्यान जीभ और दांतों पर रखता है उसके मन मस्तिष्क में खाते समय भी उसका ध्यान भोजन पर नहीं रहता उसके दिलों दिमाग में चल रहे नकारात्मक विचारों के अंधड़ पर बना रहता है जिससे उसका ध्यान भोजन में न होने से अक्सर कभी-कभी उसके दांत जीभ को काट देते हैं तो कभी दांत मुंह की खाल को काट देते हैं जब उसके दांत उसकी जीभ और मुंह के खाल को काटने लगते हैं तो उसके अवचेतन मन से दिमाग को एक गलत संदेश जाता है की इन गलत दांतों की जरूरत नहीं है जो बार-बार जीभ को काट रहे हैं मुंह की खाल को काट रहे हैं । इसका नतीजा यह होता है कि अपना अवचेतन मन उन दांतों को समय से पहले नष्ट करने का उद्यम करने लगता है । वह शरीर में दांतों को नष्ट करने के लिए कुपित वायु करने के लिए अम्लपित्त की मात्रा बढ़ा देता है यह शरीर में बड़ी हुई अमलता की मात्रा और इससे उत्पन्न हुई कुपित व मनुष्य के दांतों के समय से पहले क्षय का कारण बनती है जबकि पशुओं के अंदर केवल अपना ध्यान भोजन पर रखने के कारण पशु मरते दम तक दांत बने रहते हैं । जिससे पशु पोपले /दंत हीन नहीं  होते हैं ।  तभी तो पशु मरते समय अपने दांत साथ लेकर जाते हैं।

जीवन में मौत छपी है मौत में जीवन छिपा है ऐसे में जीवन में मौत और मौत में जीवन की पहचान कैसे करेंगे

  जीवन में मौत छपी हुई है, या  मौत में जीवन छिपा हुआ है इसे समझने के लिए एक अर्धवृत्त या कर्ब ग्राफ  का अध्ययन किया जाता है । जो जीवन से शुरू होता है ऊपर उठना चला जाता है एक निश्चित ऊंचाई पर पहुंचने पर वह  थोड़ी देर के लिए वहां ठहरता / रुकता है इसके बाद फिर नीचे गिरना/उतरना  शुरू हो जाता है । इस अर्थ वृत्तीय ग्राफ में जीवन का वह भाग जिसमें जीव शरीर रूप से विचार रूप से लगातार ऊपर उड़ता चला जा रहा था जिसमें वह वृद्धि और गति से विस्तार भाव प्राप्त होकर निरंतर नामित प्रचारित होता जा रहा था । वह पूर्वाध भाग जीवन है ।। परंतु इसके बाद का अर्ध उत्तरीय भाग  जिसमें वह निरंतर क्षय  और गति हीनता से हानि को प्राप्त होता हुआ धीरे-धीरे विस्तारहीन होता हुआ नामहीनता की ओर चला जा रहा है ,  1 दिन विलुप्त हो जाएगा । उसकी यह लुप्तप्रायः अवस्था मृत्यु कही गई है । जिसमें उसके अंदर अपनी जीवन रिक्तता की पूर्ति करने के लिए  न पात्रता भाव  होगा , ना योग्यता भाव होगा , ना  दक्षता भाव होगा , ना क्षमता भाव  होगा , अपितु वह जीव एक अन्य निर्जीव के समान गीली मिट्टी जैसा एक मुलायम पिंड होगा जिससे काटा पीटा जा सकता है । जिस पर उसे कोई भी एतराज नहीं होगा है वह जीवंत पिंड अब जीवन गुंण लक्षण हीन नामहीन हो चुका है । उसने नाम के धनीखंड उर्जा प्रदान भाव संवाद को धारण करना छोड़ दिया है । अब वह नाम के अनुसार ध्वनि खंड ऊर्जा को अनुभव नहीं करता है ।।  जब वह नाम बौद्धिक जीव था तब उसने नाम के ध्वनि खंड को धारण किया था । अब जब वह नाम हीन हो गया है ।  उसने नाम के ध्वनि खंड ऊर्जा को छोड़ दिया है ।।  इस प्रकार से नामित होना जीवन है , नाम हीनता मृत्यु है । यह जीव का पहला गुण है जिसे वह चेतना में सबसे पहले नाम रूप से स्वीकार करता है , धारण करता है ।  जब वह जिंदा था तो अपने को ना काटने पीटने देना तोड़ने फोड़ने देता था तब उसकी वह पिंड की अवस्था जीवन अवस्था कही गई थी । लेकिन मुलायम निर्जीव अवस्था विरोधी अवस्था मृत्यु कही गई  है । यह इकोलॉजी / वातावरण परिस्थिति प्रतिक्रिया के अनुसार . 
      जब एक पूर्ण जीव अपने आप को पूर्ण तो अनुभव करता है लेकिन वह वास्तव में पूर्ण नहीं होता अपितु  प्रत्येक जीव की पूर्णता तब अनुभव होती है जब वह अपने जैसा जी बनाने में समर्थ हो जाता है । जिसके इस गुण के अनुसार प्रत्येक जीव अपने अर्ध भाव  रिक्तता अवस्था में रहता है ।  अपने पूरक अर्ध  रिक्त भाव की पूर्ति के लिए दूसरे प्राप्त जीव को अपने रिक्तभाव में भरने का पूर्ण प्रयत्न भूख और मैथुन से करता है । जिसके अनुसार एक संपूर्ण जीव के दो अर्धभाव भ्रमित करने वाले  नर नारी भाव कहे गए हैं । जिनके अंदर नर के अंदर जन्म कम मृत्यु भाव अधिक होता है नारी के अंदर जन्म अधिक मृत्यु भाव कम का गुण पाया जाता है । परंतु दोनों के दैनिक जीवन व्यवहार में इसके विपरीत गुण परिलक्षित होता है नर अधिक ऊर्जावान होने से मृत्यु मार्ग गामी होने की ओर से शीघ्रता करता है । जबकि नारि अल्प ऊर्जावान होने से धीमे धीमे मृत्यु मार्ग गामिनी होती है । वह मृत्यु से अधिकतम बच सकने की कोशिश करती है । परंतु वह नर को  मृत्यु मार्ग पर तेजी से चलाने के लिए एक प्रेरणा स्रोत बन जाती है । नर नारी जीव  के लिए प्राप्त करने के लिए अधिक हिंसाभाव अपनाते हुए नर अन्य जीवो की हिंसा करने में लग जाता है । जिससे उसके द्वारा हिंसित हुए जीव ही उसके हिंसा मृत्यु का कारण बनते हैं । परंतु इसमें अपना जीवन जीने की अवस्था में जो हिंसा का स्रोत है जो हिंसा उत्पन्न करता करवाता है वह हिंसक जीव नामित नारी कहा जाता है ।
      जन्म वह प्रक्रिया है जिसमें प्रत्येक जीव अदृश्य जगत से दृश्य जगत में आता है परंतु आता हुआ दिखाई नहीं देता । मृत्यु जीव जीवन की वह प्रक्रिया है जिसमें जीव दृश्य जगत से अदृश्य जगत में जाता है परंतु जाता हुआ दिखाई नहीं देता । इस प्रकार से जन्म मरण जीवन के आदि अंत की क्रियाएं हैं इनमें वास्तव में यदि देखा जाए तो मृत्यु की प्रक्रिया ही अधिक लंबी प्रक्रिया है परंतु जिसके  प्रमाण रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं हैं ।  जीवन एक क्षणिक प्रक्रिया है जिसका प्रमाण रिकॉर्ड वर्तमान में उपलब्ध होता है । इसमें हम अपना ध्यान मृत्यु की ओर केंद्रित करके चलते हैं जिसे हम जीवन कहते हैं वह मृत्यु की प्रक्रिया है जिसमें जीव को मृत्यु  तक जाने के लिए उसे जीवन जीते हुए जाना होता है । प्रत्येक जीव के जन्म लेने के साथ ही मृत्यु भी जुड़ जाती है वह उस जीव के जीवन का निर्धारण करती है । यदि जीव अपनी जाति अवधि के अनुसार मरता है तो वह प्राकृतिक मौत कही जाती है ।  यदि जीव अपनी जाति अवधि से पूर्व मरता है तो उसे अकाल मौत कहा जाता है । इस प्रकार से जीवन में ही मृत्यु छिपकर चलती रहती है । जिसने जीवन में मृत्यु को जीवन के साथ चलते हुए देख लिया तो उसने जीवन को समझ लिया । परंतु जीवन की पूर्णता मृत्यु के पश्चात भी समाप्त नहीं होती , जीवन जीने का मतलब यह नहीं कि हमें अपनी जातक जीवन आयु तक जीना है , या कब जीवन छिन जाए पता नहीं ..।
  जब जीव पैदा होता है तो उसे उसके साथ साथ उसी क्षण से मरना शुरू कर देता है । ये दोनों जीवन क्रियाएं ऐनाबोलिक निर्माणकारी तथा कैटाबोलिक विनाशकारी (छिपा छिपे नाशकारी ) कही जाती हैं । नाशकारी तब कही जाती हैं जब इनके कार्य कर्म प्रभाव से नाश /नष्ट होता हुआ दिखाई देने लगता है । ।   प्रत्येक जीव के जीवन की अवधि उसके जन्मदिन के अनुसार निर्धारित होती है कि वह अपना जीवन इतने साल जी चुका है , अब उसे अपना जीवन जीने के लिए एक साल और चाहिए  .  जबकि उसे जो वह 1 साल जीवन अतिरिक्त जीने के लिए मिली है वह उसकी 1 साल जीवन जीने के लिए नहीं मिली बल्कि वह मृत्यु की ओर आने वाला मृत्यु मार्ग का समय होता है , जिसे वह जीवन समझता है ।  धीरे-धीरे इस प्रक्रिया में साल दर साल गिनते हुए जीवन पूरा हो जाता है और हम अपना परिचय इस प्रकार देते हैं कि हम इतना जीवन जी चुके जबकि सत्य तो यह है कि हम साल  एक और जीवन जीने के लालच में  एक साल और तेजी से मृत्यु लक्ष्य की ओर करीब जा रहे होते हैं ।  जबकि इस जीवन जीने की इस प्रक्रिया में हम जीना और मरना एक साथ कर रहे होते हैं । हम क्षण क्षण जी रहे हैं और छेड़छाड़ मौत के निकट जा रहे होते हैं । जीना मरना एक संगठित प्रक्रिया से हो रहा है । लेकिन हम जीवन को पकड़े हुए हैं मृत्यु को दूर समझे हुए हैं ।  इसी क्षण में हम यदि मृत्यु को भी याद कर लें तो हमें अपनी शेष जीवन अवधि का पता अपनी अंतरात्मा से पता लग जाता है । कि अब हमारा जीवन कितना और शेष है जबकि वह वाक्य भी हमारा अपना निजी वाक्य होता है जो हम अपनी अवचेतन मन में डालते हैं ।
   मृत्यु को पाने के लिए जीवन जरूरी है । मृत्यु सीधे नहीं आती । इसकी तैयारी करनी पड़ती है  इस मृत्यु की तैयारी को हम जीवन पथ कहते हैं । जीवन पथ में जीवन इसलिए है कि हम मृत्यु की तैयारी कर रहे हैं ।जीवन और मृत्यु दोनों ही एक जैसी बात में हम जैसे हम जीवन को जी रहे होते हैं । वैसे ही हम उस समय मर भी रहे होते हैं । लेकिन हम अगले जीवन क्षण को पकड़ कर अपना जीवन बढ़ा समझ लेते हैं ।  कि अभी हमें यह कार्य और करना है अभी हमारा यह वो बाकी बचा है जबकि एहसास ही नहीं चलता , फिक्र ही  नहीं होता कि उस क्षण में हम कहीं ना कहीं अपना जीवन गंवा रहे हैं । यदि हम इस पर ध्यान देंगे तो समझेंगे तभी हम जीवन की वास्तविकता से परिचित होंगे हमारा वास्तविक जीवन का आनंद हमें उसी क्षण मिलेगा ।। जब हम यह समझ जाएंगे कि जीवन और मृत्यु दोनों एक ही हैं बस फर्क अनुभव करने का है ।  इस जीवन मृत्यु के क्षण को अनुभव करने के हमारे जीवन में हर क्षण अवसर असंख्य बार आते हैं । पर हम हर बार हरिद्वार को देखते हुए  अनदेखा करके आगे बढ़ जाते हैं । जैसे इसकी पहचान है *विचार हीनता* 
 स्वादिष्ट भोजन खाया मन तृप्त हुआ , भोजन के विचार बंद । यह है भोजन मृत्यु ।।  अब जब भूख लगेगी भोजन की इच्छा होगी तो भोजन फिर से जीवंत हो जाएगा हम भोजन खाएंगे जीवित हो जाएंगे । दूसरा उदाहरण योन आनंद या मिथुन का इसके अंदर भी मृत्यु का प्रत्यक्ष अनुभव होता है जब जीव आनंद की अवस्था में चला जाता है तो वह निढाल निश्वास होकर गिर जाता है तब कहा जाता है आनंद आया । यदि मैथुन क्रिया में जीव श्वास असामान्य लम्बी लम्बी शरीर निढाल  हो कर नहीं  गिरता है तो तब तक मैंथुन आनंद दातार  सफल नहीं माना जाता ।  ऐसे में मैथुन आनंद की प्राप्ति नहीं होती है । कहने का मतलब यह है जिसे हम आनंद कहते हैं वह जीवन के अंत की और मृत्यु के पूर्व क्षणिक अवस्थाएं हैं जिनको हम अक्सर अनदेखा अनसुना अनसोचा करते हुए जीते हैं। 
     यदि हमें रात्रि में अच्छी तनाव रहित आसक्ति रहित, स्वप्न रहित निद्रा चाहिए तो रात्रि निद्रा में विघ्न दायक तत्व प्रबल आसक्ति, भयंकर विचारों से अपने मन का रक्षण करने के लिए रात्रि पूर्व दिन में इनको स्वीकार नहीं करना होगा अपने मन की रक्षा करना अपना जीवन धर्म ह .. प्राणों की रक्षा प्राणी धर्म है यौवन की रक्षा प्रज्या नियंत्रण धर्म ह ।
     जन्म और मृत्यु के बारे में अनेक बातें कही जाती हैं लेकिन एक बात यह कही जाती है जैसा हम जीवन जीते हैं वैसी ही मृत्यु होती है ।  जबकि इसके विपरीत एक दूसरी बात भी है कि  जैसा हम जीवन जी रहे हैं यह जरूरी नहीं कि मृत्यु भी वैसी ही हो । वह उसके विपरीत भी जा सकती है उससे अच्छी  हो सकती है मृत्यु महोत्सव  धार्मिक कर्मकांड रुप में दृश्य मृत्यु अच्छी कही जाती है । यदि धार्मिक कर्म काँड पूरी तरह से नहीं किए जाते हैं तो मृत्यु  बुरी कही  जाती है । परन्तु दुर्गति के रूप में खुली मृत्यु  विकराल विकृत कही जाती है ।  इसमें हम अपना ध्यान एक वाक्य की ओर लक्षित करके चलेंगे जिसमें यह कहा जाता है जैसा जीवन हम घटित हो कर जीते हैं ,  वैसे ही मृत्यु होगी यदि जीवन में शांति और विवेक है तो मृत्यु के समय भी शांति और विवेक रहेगा । परंतु यदि जीवन में अशांति और विवेक हीनता है तो मृत्यु भयंकर चिंता कलेश युक्त होगी ।।   यदि जीवन में व्यर्थ की चिंता अवसाद और तनाव रहा है तो मृत्यु भय में घटित होगी । यदि जीवन में होश हवास ध्यान विवेक की प्रचुरता रही है तो मृत्यु भी होश ध्यान और विवेक में होगी । इसलिए यदि चाहते हो कि मृत्यु सुंदर हो तो जीवन को सुंदर बनाने के लिए जीवन में चिंतन मनन ध्यान विवेक निर्णय क्षमता को उत्पन्न करते हुए जीवन जीने का अभ्यास करते हुए जीवन में पूर्ण तृप्त होने का प्रयत्न करना होगा । यदि मृत्यु एक महोत्सव की तरह आए तो जीवन को बसंत बनाना पड़ेगा जैसा जीवन के साथ हमारा व्यवहार होगा हमारे साथ वैसा ही व्यवहार मृत्यु करेगी । कोई अंतर नहीं कोई भेद नहीं कोई विविधता नहीं मृत्यु पीड़ा हीन अवस्था मूर्छा में घटित होती है । मरने से पहले व्यक्ति बेहोश हो जाता है ।  जीवन भी मूर्छा में होता है पैदा होने से पहले व्यक्ति प्रसव की अवस्था में बेहोश जैसा होता है उस स्थिति में अनिद्रा की अवस्था या तंद्रा अवस्था होती है। उस अवस्था में जब बच्चा ध्यान करता है तो वह पूर्व जन्म स्मृति के लघु स्वप्न में चल रहा होता है और जैसे ही वह उसकी चेतना लौटती है  ध्यान परलोक का घटित होता है पुरानी चेतना विलुप्त हो जाती है नई चेतना की तैयारी हो जा, हो जाती है । ऐसे में जो बच्चे जन्म के समय ही मृत्यु दर्शन कर लेते हैं अपने विवेक से वह जन्म लेते ही मर जाती हैं । परंतु जिनमें जन्म लेते समय मृत्यु दर्शन की इच्छा नहीं होती जिनका विवेक  दृष्टिकोण जन्म जीवन के प्रति आशातमक होता है वह अपने जीवन को भय से जीना शुरू कर देते हैं । जन्म से पहले मृत्यु दर्शन कर लेने से भी वह डर के मारे सब कुछ भूल जाते हैं और असहाय महसूस करने के कारण वे रोने लगते हैं परंतु जो बच्चे जिनका विवेक जागृत हो जाता है वह नहीं रोते  है जैसे नानक और तुलसीदास । जी्व के मन में इच्छाएं बहुत है लेकिन उन इच्छाओं को पूरा करने के लिए शरीर में शक्ति नहीं मन मन में विचार नहीं मस्तिष्क में सूचना नहीं ऐसी असहाय अवस्था में बालक के सामने मात्र एक रोने का विकल्प बचता है ।
   ऐसे में कुछ मूर्ख लोग जो अपने को विद्वान समझते हैं उनका एक वाक्य आता है कि जब एक दिन मरना ही है तो हम क्यों जी रहे हैं तो इसका सही जवाब यही है कि हम मरने के लिए ही जी रहे हैं , यह सब कुछ मृत्यु पर निर्भर करेगा कि वह उत्सव बनकर आएगी  या हमारी दुर्गति बनाने आएगी । ऐसे एक सुंदर विचार यही है कि यदि जीवन को आनंद में जीना है तो रोजाना मरने का प्रयास करो बेफिक्री से तनाव रहित पूरी निद्रा लेकर जिसमें स्वप्न न हों , निद्रावस्था में स्वप्न का आना तनाव आसक्ति की पहचान है जो स्वप्न में भी सुखः दुखों का अहसास करा देती है कि  हम बिना निद्रा की तैयारी किए सो गए ,, सोने से पहले हमने मन को आसक्ति तनाव से मुक्त नहीं किया यदि हम स्वप्न रहित निद्रा में सोना सीख जायेंगे त़ो दिन में अच्छा तनाव आसक्ति रहित जागरूक जीवन जीना सीख जायेंगे  । विधी दायक संतुष्टि दायक स्वादिष्ट भोजन करो इससे तुम्हारी भोजन इच्छा मृत्यु भोजन करते समय  हो जाएगी । तृप्ति दायक आरामदायक निद्रा का आराम लो इससे मृत्यु सोते में हो जाएगी । परम आनंद कर्म मिथुन का आनंद लो इससे मृत्यु मैथुन अवस्था मुद्रा में हो जाएगी ।।   एक बार जो जी्व आनंद जागृत अवस्था में देख लेता है महसूस करने लगता है फिर उससे आनंद प्राप्त करने में भय नहीं लगता वह मृत्यु से नहीं डरता है और अपने जीवन को जीना सीख जाता है । क्योंकि प्रत्येक जीव के जीवन में जीवन  के संग-संग मरने की प्रक्रिया चल रही है बस नजर जीवन पर जमाए रहो या मृत्यु दर्शन पर नजर जमाओ यह तुम्हारे इच्छा विवेक चिंतन पर निर्भर करता है कि तुमको जीवन दर्शन करने में ज्यादा आनंद आ रहा है तो तुम जीवन मार्ग में चलते रहोगे  या तुमको इंद्रिय हीनता से मृत्यु  दर्शन करने में आनंद आने लगा है जीवन के प्रति आसक्ति भाव घटने लगा है विरक्ति भाव बढ़ने लगा है कर्म कार्य भाव घटने लगा है जीवन के प्रति उदासीन त्याग भाव बढ़ने के तुम अपने आप मृत्यु मार्ग में चल पड़े हो।जीवन हो या मृत्यु मनुष्य को बस उसमें आनंद का चिंतंन करना है।  
 इस पर आशुतोष दाधीच के विचार:-  मृत्यु काल की सब सामग्री तैयार है मरने से पहले कफन तैयार है नया कफन बनाने के लिए कपास नहीं होगा नी कपड़ा नहीं बनाना उठाने के लिए आदमी तैयार हैं मृत्यु कार्य की पूर्णता करने के लिए नए आदमी नये बच्चे पैदा नहीं करने जलाने की जगह भी नहीं ढूँढनी  सब कुछ तैयार है कुछ नया नहीं लेना पड़ेगी फ्री है जलाने के लिए लकड़ी भी तैयार है यह दायित्व दूसरे का है इसमें लकड़ी के लिए नए वृक्ष नहीं लगाने पड़ेंगे केवल स्वास बंद होने की देर है श्वास बंद होते ही यह सब सामग्री अपने आप जुट जाएगी ।
      अब जीवन का दूसरा पाठ जिसमें मृत्यु को भयंकर पीड़ादायक खतरनाक विपरीत माना समझा जाता है यह गति उन अज्ञानी लोगों को प्राप्त होती है  जिन्होंने जीवन को ढंग से पूर्णता से लक्ष्य पूरित करने से नहीं  जिया होता । जो अपने जीवन लक्ष्य से भ्रमित होकर अपना अलग लक्ष्य जीवन दिशा दूसरे लोगों के कहे अनुसार अपनाने से अपने जीवन को दूसरों के दिशा दशा निर्देशन के अनुसार जीने का प्रयत्न करते  हैं । उन लोगों की मौत अक्सर कष्टकारी पीड़ादाई अनुभव इसलिए होती है क्योंकि उस मौत का चयन उन लोगों ने अपने लिए स्वयं नहीं किया बल्कि उस मौत का चयन भी उन लोगों ने दूसरे के विचारों को अपनाने के साथ ही आरंभ कर दिया था । 
    आजकल की भौतिकवादी सम्मान की आर्थिक सोच के चलते अब लोग मृत्यु से भी रोजगार करने लगे हैं । आज की तारीख में व्यक्ति का मरना भी बहुत अधिक महंगा हो गया है । अधिकतर धनी समर्थ समृद्ध लोग व्यक्ति को मृत्यु अवस्था के पूर्व मृत्यु अवस्था निवारण केंद्र अस्पताल में ले जाकर भर्ती कर देते हैं । जिसमें यदि मनुष्य की प्राकृतिक व्रत मृत्यु नहीं हुई है ऐसी अवस्था में मनुष्य रॉगी /तन,मन,रोगी माना जाता है । जो रोग से ठीक हो कर वापस घर आ जाता है । परंतु जिन लोगों की व्रत मृत्यु का समय आ जाता है ऐसे मनुष्य अस्पताल में भी ठीक नहीं होते अस्पताल में भी मर जाते हैं । ऐसे में अस्पताल वाले उस मरे हुए मनुष्य के परिवार से काफी अधिक मात्रा में आर्थिक दंड वसूलते हैं यहां तक कि मरने वाले व्यक्ति के परिवार पर उस व्यक्ति के अस्पताल में मरने पर बहुत अधिक प्रमाण में कर्ज चड़ जाता है । बात यहीं पर नहीं रुकती है मरने के पश्चात उस मनुष्य को यदि वह हिंदू नहीं है । तो उसके क्रियाकलाप में मृत्यु कर्म करने पर आर्थिक खर्च दफन करने में कफन दफन का खर्च थोड़ा आता है । यदि मरने वाला व्यक्ति हिंदू है तो ऐसे में उसका मृत्यु कर्म करने पर कफन जलन कर करने में इतना अधिक खर्च आता है । कि मनुष्य का दिवालिया तक निकलने की आशंका बन जाती है । मरने के पश्चात मृतक परिवार में मृत्यु भोज  -  मृत्यु भोज के पश्चात ब्रह्मभोज -  ब्रह्म भोज के पश्चात जाति भोज - जाति भोज के पश्चात वार्षिक अंत्येष्टि -  वार्षिक अंत्येष्टि  के बाद प्रत्येक वर्ष श्राद्ध कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदू धर्म में जन्म लेना भी महंगा पड़ता है । हिंदू धर्म में मरना भी महंगा पड़ता है । कारण कि हिंदू धर्म में जन्म मरण की प्रक्रिया पंडितों और जीवन जीने की प्रक्रिया पंडितों के बड़े भाई ज्योतिषी लोगों /रोजी रिजक दाता अफसरों और मालिकों के आधीन हो जाती है जो जीवन का  व्यर्थ शोषण कराती है ।जिसमें मनुष्य अपनी पूरी मानव जातक आयु न जीकर जातक आयु से पहले तरह तरह के रोगों में घिर कर, हृदयाघात मस्तिष्क आधात से समय पूर्व मरने को बाध्य हो जाता है।
    यह तो था उस काल मौत का वर्णन जिसमें व्यक्ति एक निश्चित अवधि प्रवृत्ति मृत्यु के कारण मरता है अब इससे भी दूसरा एक और खतरनाक मृत्यु का कारण है जिसे अकाल मौत कहा गया है ।  जिसमें अस्पताल का खर्च जुड़ने के साथ-साथ अदालत का ,  पुलिस का भी खर्च शामिल हो जाता है और जो व्यक्ति अकाल मौत का कारण बना है उस व्यक्ति के साथ पारिवारिक रंजिश का संबंध बन जाने से मनुष्य का जीवन और भी ज्यादा खतरनाक स्थिति में चला जाता है । ऐसे में जो व्यक्ति अकाल मौत मर गया वह मर गया परंतु जो लोग उस अकाल मौत का कारण बने व्यक्ति से दुश्मनी मान लेते हैं ऐसे में दोनों पक्षों के मध्य खूनी रंजिश का खेल शुरू हो जाता है ।   दोनों पक्ष के लोग अधिकांशतः  अकाल मौत मरने लगते हैं । शायद ही कोई भाग्यशाली व्यक्ति जो संघर्ष स्थान को छोड़कर भाग जाता है वही अपनी प्राकृतिक मौत मर पाता है । नहीं तो जो लोग संघर्ष इस्तेमा स्थान पर अड़कर जमे रहते हैं ।वह अक्सर अकाल मौत मरते रहते हैं फौजदारी में , परंतु जो लोग फौजदारी के संघर्ष के बाद बच जाते हैं उनके जीवन का अधिकांश का  दुर्पयोग अदालतों में मुकदमे बाजी में जिला न्यायालय उच्च न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय में व्यतीत होता है परंतु मृत्यु का न्याय नहीं मिल सकता और लोग मृत्यु को  रोग बनाकर अपनी संतान को देखकर दुनिया से जाते रहते हैं । मृत्यु को ना समझ पाने के कारण ...ः। 

लोग बीमार होकर क्यों मरते हैं

बीमारी और स्वास्थ्य का रहस्य कुछ शब्दों में निहित है जैसे बायोइलेक्ट्रिसिटी जीवो के शरीर में मौजूद विद्युत ऊर्जा ! बायो मैग्नेटिक ! जीवो के शरीर की चुंबक के द्वारा ब्रह्मांड के वाहय ऊर्जा अंणुओं जैविक वृहदाकार अंणु लधुआकार अंणु   {माइक्रो, मैगा मौलिक्यूल }   को एकत्रित करके अपने शरीर को बढ़ाने की जैविक प्रवृत्ति © , शरीर को नियमित रूप से स्थिर करने का प्रयास ! स्थिरीकरण ऊर्जा /स्थितिज ऊर्जा गतिज और स्थितिज ऊर्जा को नियंत्रित सक्रिय अवस्था में रखने वाले ऊर्जा अणु  ताप का उत्पादन ! रूल्स ऑफ थर्मोडायनेमिक्स !  का ज्ञान होना आवश्यक है। सभी जीव अपने दैनिक कार्यों के दौरान  सक्रियता के कारण अपनी निजी ऊर्जा को गति के दौरान खोते रहते हैं । परंतु अपने को स्थिर स्थाई अवस्था में लाने के लिए सभी जीव स्थिर स्थाई अवस्था में जीने के लिए स्थितिज ऊर्जा की इच्छा रखते हैं । 
             परंतु कुछ वाहय सूक्ष्मजीव ऐसे भी हैं जो जीवो के ना गति करने पर भी उनके शरीर मैं घुसकर उनके शरीर को संगठित करने वाले जैविक अणु को उनके  तोड़कर शरीर से हटाते रहते हैं इन्हें हम लोग रोगजनक  सूक्ष्म जीव कहते हैं । जो बाहय सूक्ष्म जीव बड़े जीवों के शरीरों  को नष्ट करते रहते हैं ।उन्हें हम रोगजनक जी्व कहते हैं । यह वाहय जगत के बड़े जीवो के शरीर में घुसकर उनके विभिन्न प्रकार के ऊर्जा अणुओं को तोड़ कर खाकर ऊर्जा प्राप्त करते रहते हैं जिससे बड़े शरीर वाले जीवों की गतिज ऊर्जा और स्थितिज ऊर्जा का अनुपातिक तारतम्य खराब हो जाता है और बड़े जीव रुग्ण अवस्था कार्य की क्षमता हीन  अवस्था में आ जाते हैं जिन्हें हम बीमार कहते हैं ।
      इसके अलावा मनुष्य का व्यर्थ मानसिक चिंतन भी  ऊर्जा की समस्या उत्पन्न करता रहता है । ऊर्जा भी एक प्रकार के  ऊष्मा / फोटाँन  कंण है जो  चिंतन मनन करने की प्रक्रिया में विचार में परिवर्तित होकर /  बदल कर विचार से शब्द चित्र और वीडियो के रूप में बदल कर शरीर की अस्थायी भूतिक अवस्था में अक्सर प्रकटन से दृश्य विलुप्ति करण से अदृश्य होते रहते हैं । जिनके कारण  फिल्म कल्पनाओं में बदल कर साकार निराकार की अवस्था में आकर जी्व को दृश्य अदृश्य स्थिर अस्थिर की स्वप्न ,कल्पना, जैविक दृश्यों की   भ्रमित अवस्था में करते रहते हैं । जो निरंतर अपघटित होकर छोटे बड़े होते रहते हैं । संगठित होकर बढ़ते रहते हैं । इस प्रकार ऊर्जा के अपघटन की प्रक्रिया से बृहदाकार अंणु निरंतर टूट टूट कर सूक्ष्मता से नष्ट हो जाते हैं ।  तो  छोटे छोटे कंण निरंतर संगठित होकर बड़े वृहदाकार जैविक कंणोंं में बदल कर शरीर का आकर बढ़ाते   चले जाते हैं 
     इस प्रकार से ऊर्जा के सूक्ष्म कणों के द्वारा निरंतर संगठित होकर बड़े आकार के जैविक अणु बनते हैं । जो जीवो के शरीर का निर्माण करते हैं । परंतु जब  ऊर्जा के कण  अप घटितहोकर छोटे होने लगते हैं । यह वृहद जैविक अणु जो कि बड़े आकार थे के थे निरंतर अटघठित होकर छोटे होने लगते हैं या नष्ट होने लगते हैं । ऐसे में जीवो के शरीर से यह शरीर को संगठित करके बढ़ाने वाले वृहदाकार अणु  आयु और रोग के अनुरूप घटते चले जाते हैं जिससे जीवो का शरीर निरंतर छोटा होने लगता है । जब जीवो का शरीर बड़े से छोटा होता है तो जीव को ऊर्जा की कमी से जीवन जीने में समस्या महसूस होती है । जिससे रोग कहा जाता है । यह जीव की रोग अवस्था ह  जिस में आने पर जी्व को पीड़ा का अनुभव होती है । जीव अक्षमता भी महसूस करता है । उससे अपना जीवन जीने के लिए उसके निजी आवश्यक जैविक कार्य भी उससे नहीं हो पाते हैं। इसके अलावा जी्व के अन्य जैविक क्रियाकलप भी हैं जिनमें ऊर्जा कंण अपने आप भी नष्ट होती रहती है गतिज ऊर्जा की कमी उत्पन्न करता है जिससे जीवो का शरीर घटने लगता है बुढ़ापा आने लगता है । 
      मेंटेनेंस अवस्था जिसमें रूल आफ थर्मोडायनामिक्स के अनुसार शरीर भी कई प्रकार के जैविक कार्य करने के दौरान विभिन्न प्रकार की ऊर्जा अणुओं को खोते पाते रहते हैं जिससे शरीर में  गतिज ऊर्जा और स्थितिज ऊर्जा का योग स्थिर साम्य बना रहता है । जब तक जीवो के शरीर की ऊर्जा मेंटेनेंस स्थिति बरकरार है जीव का शरीर  स्वास्थ्य अवस्था में रहता है ।  जब मेंटेनेंस की स्थिति बिगड़ने लगती है ऐसे में जीव का शरीर बिगड़ने लगता है उसके शरीर के ऊपर जमे हुए बड़े आकार के जैविक अणु कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन, विटामिनस के जो जैविक अणु  उसके जैविक चुंबकत्व खराब होने के कारण उसके शरीर में जमे हुए थे वह उखड़ने लगते हैं। ःजिससे जीव पीड़ा महसूस करता है । जीव के शरीर को जीने में जैविक ऊर्जा की कमी पड़ जाती है । जीव के शरीर का ताप गिर जाता है जैसे ही जीव के शरीर का जैविक ताप गिरना शुरू होता है उसका जैविक चुंबक जैविक विद्युत का प्रमाण घट जाता है । उसके शरीर में मौजूद छिपे हुए बैक्टीरिया सक्रिय हो जाते हैं और उसके शरीर की स्वस्थ कोशिकाओं को नष्ट करके अपना पोषण करने लगते हैं। इस प्रकार से प्रत्येक जीव का शरीर का अस्तित्व उसकी जैविक विद्युत और जेब चुंबकत्व , जैविक ताप थर्मोडायनामिक्स के गुण पर निर्भर करता है । परंतु यह जैविक विद्युत और जैव चुंबकत्व भी उस जीव के निजी विचार अवस्था मानसिक चुंबकत्व वासना ( पूरक आपूर्ति भाव संस्कार )  कामना ( करने योग्य आवश्यक कर्म )  भाव प्रभाव अभाव स्वभाव आदि से जीव के मंन की दीर्घकालिक स्थिर अवस्था खुशी विचलित अवस्था दुख के कारण पर निर्भर करती है ।  
  जीवो के शरीर की एनर्जी मेंटेनेंस जीवो के शरीर तरह तरह के संक्रमण के द्वारा प्रभावित होते रहते हैं जिससे उनके उपयोगी जैविक अंणु उनके शरीर से दूर जाते रहते हैं शरीर छोड़कर हट जाते हैं दूसरे जीव उसके शरीर उपयोगी अणुओं को अपने शरीर में जोड़ने के लिए दूसरे जीवो के शरीर के जैविक अंणुओं का भक्षण करते हैं । इस प्रकार का विचित्र कृत्य वे विभिन्न कार्य के दौरान  ऊर्जा व्यय होने पर ऊर्जा प्राप्त करने के लिए  करते हैं । उस उर्जा के पूर्ति वह दूसरे जीवो के शरीर को खाकर करते हैं । यदि क्षय ऊर्जा अंणु  और भक्षण ऊर्जा अंणुओं दोनों का अनुपात समान है तो जीवो का शरीर स्वस्थ अवस्था में रहता है । यदि क्षय ऊर्जा अंणुओं परिमाण बढ़ जाता है भक्ष्य ऊर्जा अंणुओं का परिमाण घट जाता है तो  जीवो के शरीर की जैविक क्षमता उनके आवश्यक जैविक कार्य करने के लिएकम हो जाती है । जीव बीमार रहने लगते हैं । इस प्रकार से बक्श उर्जा अनु और 6 उर्जा अणुओं का अनुपात ही जीवो के स्थिर स्वास्थ्य या चलित स्वास्थ्य की पहचान है।

वर्तमान में समाज में कितने प्रकार की शिक्षा पद्धतियाँ व्याप्त हैं ?

शिक्षा शब्द का आशय स्वयं बोलता है :-- सीखो अच्छा "  यह जीवन की जैविक प्रक्रिया मनुष्य के जन्म लेने के बाद जैसे ही उसे चेतना जागने लगती है । उसमें अपना जीवन जीने , अपने जीवन को बचाने ,, अपने जीवन को सुरक्षा देने की भावना आने लगती है ।  जिससे वह लघु मानव शैशवावस्था से  वह समाज में वातावरण में सभी से सीखने लग जाता है । अपने जीवन के लिए शुरुआती लाइफ उपयोगी टिप्स जिन्हें सम्मिलित रूप से आरंभिक शिक्षा कहा जाता है ।    आमतौर पर शिक्षा का व्यापक अर्थ स्कूली शिक्षा को समझा जाता है । जो एक निश्चित धार्मिक सामाजिक जीवन राष्ट्रीय योजना के अंतर्गत निश्चित स्थान विद्यालय में निर्धारित पाठ्यक्रम पड़ने पर ही संपन्न होती है । लोग उसे ही शिक्षा कहते हैं ।।        जबकि मेरे विचार से शिक्षा की है परिभाषा पूरी नहीं है । मेरे विचार से शिक्षा बच्चा तीसरे महीने से शुरू कर देता है जिसमें वह  अपने को दूसरों की अप्रिय प्रेरणा अप्रिय संवेदनशीलता से उनके अप्रिय व्यवहार से बचने का प्रयास शुरू कर देता है । इस दौरान बच्चे की मां के शैशव गान लोरियों का प्रभाव उस बच्चे पर पड़ने लगता है । यदि वह लोरियां अच्छी-अच्छी गाती सुनाती है तो बच्चे का विकास अलग दिशा में चलने लगता है यदि रहे बच्चे को लोरियां नहीं सुनाती है तो बच्चे का विकास रुक सा जाता है इसमें गौर करने की बात यह है कि मां बच्चे को हर समय अधिकतम लोरियां सुनाती रहती है परंतु बच्चा कभी कभी मूड होने पर ही उन लोगों को स्वीकार कर पाता है ।  उसके बाद जब वह 1 वर्ष का हो जाता है तो उसमें सीखने की प्रक्रिया तेजी से विकसित होने लगती है जिसमें वह अपने जीवन के लाइफ टिप्स परिवार के लोगों मां से अधिकतम पिता से न्यूनतम  को देखकर और वातावरण के संवेदनशीलता को समझ कर तेजी से सीखता है । इस सीखने की प्रक्रिया में जब वह 2 साल का हो जाता है तो उसके सीखने की प्रक्रिया में मां बाप के अलावा घर परिवार के लोग जुड़ जाते हैं , वह उनसे भी सीखने लगता है ।  जब वह 5 वर्ष के पश्चात घर से बाहर निकलना शुरू कर देता है तो वह बाहर घर समाज परिवार और वातावरण सभी से सीखने लगता है । सीखने की प्रक्रिया जीवन में पैदा होने से शुरू हो जाती है जो सामान्य लोगों में स्कूली शिक्षा के रूप में 20 वर्ष तक चलती है ,  परंतु  कुछ ऐसे लोग होते हैं जो मरते दम तक सीखते रहते हैं ऐसे लोगों को लचीली  बुद्धि वाले परम बुद्धिमान विवेकशील लोग समझा जाता है ।

      सीखने की प्रक्रिया में अधिकतर लोग सिर्फ स्कूली शिक्षा को शिक्षा समझकर स्कूली शिक्षा को सीखने पर जोर देते हैं जबकि मेरे अनुभव के अनुसार हमें पता भी नहीं चलता कि हम कब और किस किस तरह से स्कूली शिक्षा से हटकर शिक्षा के अन्य औपचारिक वैकल्पिक स्रोत जैसे सत्संग * , सभा * , पंचायत *, गोष्ठी * ,मित्रों की मंडली से* , अपने बड़े छोटे सभी लोगों की बातें सुनकर के अपने को शिक्षित करते रहते हैं । जिसे पर्सनालिटी डेवलपमेंट कहते हैं । आमतौर पर पाठ्यक्रम की शिक्षा को ही शिक्षा माना गया है । लेकिन मेरे विचार से बच्चा स्कूल में जाकर पाठ्यक्रम से ज्यादा अपने स्कूल के सहपाठियों से , कमतर निजी मनन चिंतन से , परन्तु स्कूल  के शिक्षकों के निर्देशन में क्रियाकलापों से ज्यादा  सीखते हैं ।  जिन के मन पर   सहपाठियों का ज्यादा रंग चढ़ जाता है वह स्कूली पाठ्यक्रम की शिक्षा में कम रुचि लेते हैं । स्कूल की शिक्षा से दूर चले जाते हैं । समाज के लिए अनुपयोगी अपराध जगत में चले जाते हैं असामाजिक दृष्टिकोण अपना लेते हैं ,  जिनके मन पर शिक्षकों का रंग चढ़ता है वह स्कूली पाठ्यक्रम से जुड़ कर के परिवार समाज और राष्ट्र की उपयोगी विचारधारा से जुड़ कर के समाज के लिए उपयोगी नागरिक बन जाते हैं ।। 
         जिन छात्रों के मन में शिक्षा द्वारा निजी मनन चिंतन के गुंण  उत्पन्न होकर अधिकतम हो जाती है ।  मात्र वहीं छात्र समाज के दिशा निर्देशक उच्च कोटि के व्यापारी उद्योगपति लेखक साहित्यकार राजनीति कार बन पाते हैं शिक्षकों की ओर अभिप्रेरित हो जाते हैं वह शिक्षक जगत में या समाज के अन्य जगत में सेवा दाता बन जाते हैं । परंतु जो मित्रों की ओर ज्यादा अभिप्रेरित हैं और उनकी मित्र मंडली भी अच्छे लोगों की है तो वह मित्रों की संगत से अच्छी निर्माणात्मक दिशा की ओर चल पड़ते हैं यदि मित्रों की मंडली संगत अच्छी नहीं है तो वे विनाश आत्मक दिशा अपराध जगत की ओर चल पड़ते हैं।   ऐसे में शिक्षा को मात्र स्कूली शिक्षा तक सीमित करके शिक्षा को छोटा ना समझते हुए शिक्षा के प्रति दायरे को बढ़ा करते हुए हम अपनी सोच को यदि लर्निगमाइंड या सतत शिक्षा का बना लेते हैं अर्थात इस दुनिया में हमें प्रत्येक जीव प्रत्येक मनुष्य कुछ ना कुछ सिखा रहा है । हम सभी से कुछ ना कुछ सीख रहे होते हैं । अब यह बात अलग है कि हमने क्या कुछ अलग सीखा जो उपयोगी था या हमारे लिए अनुपयोगी निरर्थक सिद्ध हुआ ।
          इस सीखने की प्रक्रिया में यदि मनुष्य अच्छे आध्यात्मिक गुरु के संपर्क में आ जाते हैं जो उन्हें चिंतन मनन की मौलिक साधनाएं विधि सिखा देते हैं जिससे उनका अपने निजी जीवन संचालक मस्तिष्क के अवचेतन मन से संपर्क करना आ जाता है । तो ऐसे अवचेतन मन से  नियंत्रित संपर्कित  छात्र अपने जीवन में सबसे अधिक प्रगति करते हैं । वे छात्र यदि कहीं भटकते हैं गलती करते हैं तो ऐसे में उन्हें उनके अवचेतन मन से आने वाली निजी अंतर चेतना आवाज समय-समय पर रोक कर उचित दिशा में मार्ग   निर्देशित करती रहती है । इस प्रकार से यह सामान्य लोगों और छात्रों की लीक से हटकर अपने मंन की अवचेतन मन की बात को सुनते हुए अपने मन के अवचेतन स्तर से जीने वाले छात्र अपने जीवन में अधिकतम प्रगति करते हैं । परंतु कुछ लोग इनसे भी ऊपर होते हैं जो अपने अवचेतन मन को नियंत्रित करना अपने अवचेतन मन को आवश्यक निर्देश देकर नियंत्रित करना सीख जाते हैं । उनमें से नियंत्रित अवचेतन मन मस्तिष्क वाले छात्र और अधिक तरक्की करते हैं परंतु जो छात्र अपने मन के सुपर चेतन स्तर सुपर ईगो से जीते हैं वे छात्र समाज के संचालक फरिश्ते और सर्वोत्तम उपयोगी नागरिक बनते हैं । इस प्रकार से शिक्षा में मस्तिष्क नियंत्रण विचार नियंत्रण की विधा का महत्व सबसे अधिक और सर्वोपरि है जिसके आधार पर हमारा विवेक कार्य करता है।
         यह हमारी निजी विवेक पर निर्भर करता है इसमें हम यदि सुनना समझना सोचना और बोलना इस प्रक्रिया को सही तरीके से सीख जाते हैं जिसे ज्ञान मार्ग कहा जाता है । जिसे सुने सबकी करें मन की ,,  तभी हम सही मायनों में शिक्षित हो पाते हैं । अन्यथा दूसरे लोगों के हर किसी की बात को ध्यान देकर सुनने के बाद उसे ज्यों का त्यों अपनालेने पर वह उसकी बात हमारे दिमाग में बैठती चली जाती हैं , और उसके बाद निरर्थक बातों की अधिकता के कारण हमारा दिमाग निरर्थक बातों पर आधारित निरर्थक क्रिया कलाप के अनुसार अनियंत्रित निर्थक व्यवहार करने लगता है । जिससे हम समाज में परिवार में फेल होते दिखाई देते हैं । इस फेल होने की प्रक्रिया से बचने के लिए शिक्षा का अहम पक्ष सेल्फ माइंडसेटिंग या अपने दिमाग की अपने आप सेटिंग करना और सैल्फ ब्रेनवॉश आना चाहिए यह बहुत जरूरी है । यदि सेल्फ माइंडसेटिंग का फंडा हमारे दिमाग में आ जाता है , और हम अपने दिमाग को अपने हिसाब से सेट करना सीख जाते हैं । तो हमारे दिमाग पर दूसरों का शब्दों का जादू प्रभाव नहीं चल पाता ।। ऐसे में हम अपने जीवन में अधिकतम तरक्की करते हैं , परंतु जो लोग अल्प शिक्षित हैं जिनके परिवार में शिक्षित नहीं हैं अगर उन्हें अपनी तरक्की करनी है तो ऐसे में उन्हें दूसरों के शब्दों को ग्रहण करना उनकी मजबूरी है ,  उनका विकास दूसरे लोगों को देखकर उनके प्रेरणा शब्दों को सुनकर  होता है । इन दूसरे लोगों के शब्दों को ग्रहण करते समय हमें इस बात का खास ध्यान रखना पड़ता है । हमें जो दूसरे लोग शब्द दे रहे हैं क्या वह अपराधी मनोवृति के लोग हैं या सामान्य श्रेष्ठ लोग हैं , या असामान्य श्रेष्ठ लोग हैं या असामान्य सामान्य प्रकार के अपराधी सोच के भ्रमित करने वाले धुर्वे धुर्रा धूर्त राजनीतिक  लोग हैं । ऐसे में हम अपनी तरक्की सिर्फ उन धार्मिक लोगों के विचारों के ऊपर आधारित होकर कर सकते हैं । जिनकी सोच सामान्य या असामान्य रूप से श्रेष्ठ लोगों की श्रेणी में होती है ।।
      ऐसे में माइंडसेटिंग में हमें इस बात का भी विशेष ध्यान रख कर के हमें उन लोगों के विचारों को अहमियत नहीं देनी चाहिए , जिन लोगों के विचार निरर्थक हमें भ्रमित करने वाले किंकर्तव्यविमूढ़ किनकर बनाने वाले हैं । हमें समाज उपयोगी विचार देने वाली लोगों के विचार सुनने चाहिए परिवार के उपयोगी लोगों के विचार सुनने चाहिए तभी हम अपने विचार विश्लेषण द्वारा दूसरों के विचारों से भी लाभ उठाकर तरक्की कर सकते हैं । विचारों की प्रक्रिया श्रृंखला उस दूध के समान होती है , जिसमें बहुत अधिक परिमाण में पानी अल्प परिमाण में पोषक वसा आदि तत्व होते हैं । ऐसे में हम अपना ध्यान मात्र मानसिक पोषण विचारों  (पोषक प्रोटीन और वसा पर रखना चाहिए ना कि पानी पर क्योंकि पानी और पोषक प्रोटीन भी मट्ठा के रूप में बाहर निकल जाती है ) इस प्रकार से मक्खन और घी के रूप में हम न्यूनतम उच्च उत्तम विचारों का संग्रह अपने पास कर पाते हैं ।
   इसी बात को ध्यान में रखते हुए हमें शब्दों के प्रति अत्यंत संवेदी और जागरूक रहते हुए शब्दों को ग्रहण करने सुनने से पहले जागरूक होकर गौर करके वक्ता को देखकर ही वक्ता के शब्द सुनने चाहिए कि वक्ता भूत राजनीतिक है या सच्चा धार्मिक है ।। इसी बात को हम और आगे बढ़ाते हुए अपनी शिक्षा को जो स्कूल में शिक्षा ले रहे हैं उसमें भी संवेदी होकर स्कूल में दाखिल होते समय आगे के लेख को पढ़ते हुए :----  जागरूक होकर स्कूल में जागरूक रहना चाहिए कि स्कूल में शिक्षा के पांच प्रकार की शिक्षा में से कौन-कौन सी शिक्षा में दी जा रही है जिसमें से हम केवल 1  आदर्शवादी शिक्षा को अपने लिए ग्रहण करें ,2 प्रकृति वादी शिक्षा को दूसरों के लिए ग्रहण करें ,3 प्रयोजनवादी शिक्षा को समाज के लिए ग्रहण करें , 4  यथार्थवादी शिक्षा को बोलने दूसरों सुनाने के लिए संयम संज्ञान से ग्रहण करें ,  5 आदेशात्मक अवसरवादी शिक्षा को अफसरों के अनुसार उपयोग करें ॥ यदि हम शिक्षा संस्थानों में स्कूलों में इस बात का विशेष ध्यान रखेंगे तभी हम शिक्षा को सही मायनों में समग्र रूप से ग्रहण करते हुए अपने जीवन को सिद्ध सार्थक बनाने में कामयाब हो पाएंगे ।
       वर्तमान समय में  पांच प्रकार के विद्यालय  अनुभव अनूभूतियाँ किए गए हैं । जो वासना ,कामना धर्म धारण , कर्म विधि ,कर्म बंधन , शिक्षा स्थानांतरण , शिक्षा पद्धति , शिक्षा के गुण नियंत्रण के अनुसार अनुभव किए गए हैं ।
1:- आदर्श वादी शिक्षा यह शिक्षा ब्रह्मवाद के अनुसार या ईश्वरीय चैतन्यता विधान नियम आदर्शवाद के अनुसार संचालित होती है । जिसमें वासना  संस्कार भाव  जो  जीव के निजी   चेतना में संचित रहते हैं । वह उत्तम शिक्षा के प्रभाव से बाहर निकल कर प्रस्फुटित होते हैं तो अधम /पतनकारी शिक्षा  प्रभाव से दवे के दावे रह जाते हैं । इस शिक्षा में धर्म कर्म भाव  जीव की आवश्यकता के अनुसार निश्चित है इस प्रकार की शिक्षा में शिष्य का स्थान प्रमुख गुरु का स्थान द्वितीय है । इसमें शिष्य अपनी रुचि की और आवश्यकता के अनुसार अधिकतम अधिगम करता है । इस प्रकार की शिक्षा ही मनुष्य को जीवन में अधिकतम प्रगति विकास कराने में सक्षम है यह शिक्षा सार्वजनिक सत्य भौतिक * सत्य नीति * कथन पर आश्रित है । जो लोग अपने निजी जीवन में सत्य को जितने अंश में निजी तौर पर तथा परिवार में संचित करते हैं वह उतनी ही तरक्की कर के अगले स्तर में चले जाते हैं। जो लोग सत्य को नहीं स्वीकार करते सत्य से बचते हैं वह अपने उसी जीवन स्तर में बने रहते हैं जिसमें वह पैदा हुए थे ।।। इस शिक्षा की कर्म विधि में शिक्षा के दोनों पूरक  सोपान गुरु और शिष्य को एक दूसरे के हितों को देखते हुए उनकी  क्षमता पात्रता योग्यता दक्षता क्षमता   के अनुसार शिक्षा दी जाती है । जिसका परिणाम अधिकतम अधिगम के रूप में आता है । इसमें कर्म बंधन का नियम दोनों पूरक गुरु शिष्य सोपानों /चरणों  में गुरु प्राण या नर समान दाता भाव  शिष्य  इंद्री या नारी ग्रहणकर्ता  भाव समान  शिष्य का महत्व होता है । यह शिक्षा * देवत्व विधि शिक्षा पद्धति शिक्षा * कही जाती है जिसमें गुरु और शिष्य के मन में, कर्म में, धर्म में, वचन में हिंसा की संभावना न्यूनतम होती है यह शिक्षा आदर्श वादी शिक्षा अहिंसा वादी शिक्षा कही जाती है। यह आदर्शवादी शिक्षा नीति प्रधान होती है जो समाज के 90% लोगों के विचारों के अनुसार 90% लोगों को संतुष्ट करती है परंतु 10% लोग अति विकासवादी विचारणा के कारण इससे असंतुष्ट रहते हैं।
        परंतु वर्तमान समय के परिपेक्ष में देखते हुए यह आदर्शवादी शिक्षा मंदिर वादी शिक्षा मनुष्य को मूर्ख बनाने की ओर धूर्त लोगों का एक कदम बन गया है जिसमें साधारण मनुष्य में ईश्वर उचित गुण भरने का प्रयास किया जा रहा है जोकि असंभव है मनुष्य जीव होने के कारण किसी भी स्थिति में पूर्णतया ईश्वर नहीं बन सकता यदि वह ईश्वर होता तो जीव अवस्था में जन्म लेकर पैदा ना होता परंतु अवतारवाद के सिद्धांत से इससे सही सिद्ध करने का प्रयास किया गया है जो उचित नहीं है । साधारण लोग को सच और इमानदारी का भयंकर पाठ पढ़ा कर उसमें ईश्वरयता लाने का प्रयास किया जाता है। जिससे वह मनुष्य स्वयं को ईश्वर बनने समझने के फेर में सब को नियंत्रित करने में लग जाता है। उसमें अकारण सभी से लड़ाई झगड़ा करने , संघर्ष करने, सभी को नियंत्रित करने का ईश्वरीय गुण आने की सोच बन जाती है जो असंभव है । जबकि प्रकृति में वास्तविक जीवन में जीव का ईश्वर बन्ना मिथ्या कल्पना है इस मिथ्या कल्पना के चलते लोग धूर्तता पूर्ण जीवन प्रणाली अपनाते हैं दूसरों को सत्य मार्ग पर चलने का आदेश निर्देश देते हैं जबकि वह अपने निजी जीवन में उतने ही ज्यादा सत्य से दो असत्य की ओर चलते हुए लक्षित होते हैं । इस आदर्श वादी  शिक्षा के संचालक लोग अपने स्तर पर अपनी भ्रष्टता  दुष्टता दूसरों को धोखा देना लक्ष्य से भ्रमित करने में कोई कमी नहीं छोड़ते हैं । 
2:- यह शिक्षा प्रकृतिवाद या इंद्र वादी भावके रूप में जानी जाती है । जो शिक्षा में विस्तार वाद या बृहस्पति की सोच सूचक होती है यह शिक्षा रीति रिवाज  प्रधान शिक्षा होती है। इस शिक्षा में प्रजा में से आधे लोग सदैव राजा या शासक हित प्रधान होते हैं आधे लोग स्वहित   प्रधान  विद्रोही कहे जाते हैं इस प्रकार से यह समाज की भ्रम व्यवस्था की शिक्षा कही जाती है जिसमें लोग सदैव भ्रम में रहते हैं । प्रकृति भी सभी जीवो को नियंत्रित करने के प्रयास में उन सभी जीवों को जन्म देकर मौसम से पीड़ित करने  मारने में लगी रहती है । जो जीव प्रकृति की मार उष्णन शीतलन को सहन करने में समर्थ हो जाते हैं । वे सक्षम और समर्थवान कहे जाते हैं , जो प्रकृति की मार को सहन नहीं कर पाते वह अकाल मौत मर जाते हैं क्योंकि वह जीवन जीने में सक्षम नहीं होते हैं । 
      प्रकृति के द्वारा सृष्टि नियंत्रण के गुण को जो लोग समझ सीख जाते हैं वह समाज के दूसरे लोगों को नियंत्रित करने के लिए राज धर्म अपनाकर समाज के निजी लोग और दूसरे समाज के दूसरे लोग सभी को नियंत्रित करने के लिए राजधर्म से तरह-तरह के नीति नीति नियम बनाकर समाज संचालन करने में लगे रहते हैं ।
   यह प्रकृति वादी शिक्षा राज प्रवृत्ति के लोगों द्वारा जनता के लोगों को नियंत्रित करने के लिए शासक वर्ग के द्वारा लोगों को नियंत्रित करने की दिशा में उनको मानसिक गुलामी की ओर ले जाती है । दुष्ट क्षत्रिय लोगों के द्वारा अपनी सभ्यता संस्कृति का प्रचार-प्रसार करने के लिए दूसरी प्रकार की सभ्यता संस्कृति को नष्ट करने के लिए संस्कृति के युगपरुष बनने के प्रयास , संस्कृति के संचालक इंद्रपुरुष बनने के प्रयत्न , संस्कृति के रक्षक राज पुरुषओं के कोशिश  द्वारा संचालित की जाती है ।  इसमें शिक्षा का धर्म भय से प्रजा नियंत्रण तथा प्रजा को मूर्ख बनाना प्रधान होता है । इसकी कर्म विधि पशुज प्रकार की मारा पीटी /मारकाट से दूसरे जीवों को नियंत्रित करने की होती है । इसमें कर्म बंधन का गुण या शिक्षा के पूरक सोपान गुरु स्वामी के रूप में शिष्य सेवक के रूप में अपने अपने दायित्व को स्वीकार करते हुए शिक्षा ग्रहण करते हैं । यह शिक्षा क्षत्रिय प्रकार की शिक्षा कही जाती है । जो हिंसा पर आधारित होती है इसमें गुरु शिष्य का अधिकतम शोधन करने के लिए ताड़न या मारा पीटी पर ज्यादा ध्यान रखते हैं । यह शिक्षा प्रकृति वादी शिक्षा भी कही जा सकती है जो सर्वश्रेष्ठ जीवितम के जीवन लक्ष्य के अनुसार चलती है । इसमें गुरु शिष्य को सर्वश्रेष्ठ बनाने के लिए उन संस्कृति मूल्यों के वाहक  शिष्यों  संस्कृति मूल्यों के वाहन बनाने के लिए प्रचार प्रसार के लिए मारपीट विधा से  उष्णन  करता है । इस प्रकार की प्रकृति वादी शिक्षा से मारपीट की शिक्षा से शिष्यों का मूल्य के स्थान पर अवमूल्यन पतन होता है जिससे शिष्य की प्रगति अवरुद्ध हो जाती है या वह विपरीत मति गति से उल्टा चलकर पतन के गर्त में लुप्त हो जाता है।।
3:- प्रयोजन /प्रयोग वादी शिक्षा इस प्रकार की शिक्षा पद्धति में वैश्य वासना भाव मतलब मंत्वय आर्थिक विकास समृद्धि प्रधान होता है । जिसके अंतर्गत शिक्षा का उद्देश्य गति और परिणाम निश्चित नियंत्रित करने वाले लोगों की सोच वणिक या व्यापारी प्रकार की होती है । इस प्रकार की  शिक्षा का धर्म आधार लालच है । इस प्रकार की मतलब शिक्षा में लोगों में अपने अपने निजी संविधान अपने अपने कुल के अनुसार बनाने की होड़ बन जाती है जिससे समाज में परिवार में निजी संविधानओं की बहुलता के कारण तरह तरह की सामाजिक * कुरीतियां * उत्पन्न हो जाती हैं यह प्रयोजनवाद ईशिक्षा कभी गुरु के हित में जाती है तो कभी शिष्य के हित में जाती है इस शिक्षा में एक पक्षीय हित साधन होता है इस शिक्षा में सर्व हित साधन संभावना का सामाजिक शिक्षा विकल्प स्पष्ट होता है जिससे इसे  धूर्तता पूर्ण शिक्षा कहा जाता है। जिसमें इसके दोनों पूरक सोपान इसके दातागुरु व्यापारी तथा शिष्य  ग्राहक दोनों की मनोवृति लालची होती है । 
  लोभी गुरु - लालची चेला ,  करें नर्क में ठेलम्  ठेला ः
   इसमें गुरु शिष्य का शोषण करने की मनोवृति रखता है और शिष्य गुरु से मुफ्त में ज्ञान लेने की सोच रखता है । जिससे यह प्रयोजन वादी मतलबी शिक्षा अपना परिणाम न्यूनतम देती है। इसके दोनों पूरक सोपान गुरु शिष्य घाटे में रहते हैं । गुरु अपने ज्ञान को पूर्ण रूप से शिष्यों को दे नहीं पाता ,शिष्य गुरु के ज्ञान को अपनी अधिकतम क्षमता से ले नहीं पाता ।
  गुरु शिष्य दोनों अपने अपने उद्देश्यों के प्रति लक्ष्यों के प्रति ध्यान रखते हुए इस शिक्षा विधि से शिक्षा प्राप्त करते हैं । यह शिक्षा विधि की कर्म विधि मनुज प्रकार की है । जिसमें कर्म बंधन क्षणिक औपचारिकता मात्र होता है । जिसमें गुरु व्यापारी छात्र ग्राहक और दोनों ही धन आश्रित मनोवृति के होते हैं । इस प्रकार की शिक्षा का नियंत्रण धन के द्वारा , धनकुबेर ओं के द्वारा,,  धनी लोगों कारपोरेट वर्ल्ड के हित में किया जाता है ।
4:- यह यथार्थवादी शिक्षा भीड़ वाद आशीर्वाद विघटन वादी शिक्षा विधि पर आश्रित है जो यजुर्वेद के अध्याय 30 के प्रथम से अंतिम श्लोक वृत्ति भाव निरुपण पर  शुद्ध वासना भाव से युक्त होती है। जो प्रत्येक जीव के सम्यक विकास के अनुसार आधारित होती है यदि प्रत्येक जीव का पूर्ण विकास होगा तो फिर जीव क्यों कर सामाजिक अवस्था में रहेगा ? ऐसे में यह है समाज विघटनकारी शिक्षा कहने को तो  सबका साथ सबका विकास # पर आधारित कही जाती है परंतु यह समाज का ,परिवार का धर्म-कर्म स्तर तक नष्ट  कर देती है जब प्रत्येक मनुष्य अपना अपना निजी विकास करने की सोचने लगता है तो वह दूसरों के विनाश में जुट जाता है जिससे पहले घर टूटते हैं परिवार टूटते हैं , कुल टूटते हैं जातियां टूटती हैं धर्म टूटते हैं अंत में राष्ट्र भी टूटने लगते हैं । इस प्रकार की शिक्षा से समाज से लेकर राष्ट्र तक सर्वत्र अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है कोई किसी के नियंत्रण में रहना पसंद नहीं करता कोई किसी की रुचि अभिरुचि का ध्यान नहीं रखता, कोई किसी की  भावना इच्छाओं को समझने की कोशिश नहीं करता सभी अपने आप को जिम्मेदारियों से मुक्त रखते हुए ऐसे समाज की इच्छा रखते हैं कि उन लोगों का ध्यान मान सम्मान समाज के दूसरे लोग रखें लेकिन वह समाज के लोगों का ध्यान रखें ना रखें यह उनका निजी जीवन विकल्प है जो पूर्णतया दायित्व हीन है । परंतु उन्हें इस दायित्व हीन अवस्था में सभी सामाजिक सुविधा सुरक्षा के समस्त अधिकार सुरक्षित निर्बाध बने रहने चाहिए।
 इस यथार्थ वादी शिक्षा का धर्म कर्मपरिणाम अनुभव संग्रह आधारित होता हैं इसके कर्म विधि गुरु स्वयं दायित्व हीन परंतु दूसरे लोगों शिष्यों को उनका दायित्व देने समझाने वाले आप ही सर या अधिकारी मनोवृति के लोग होते हैं , परंतु शिक्षा ग्रहण करने वाले शिष्य  स्वयं दायित्व हीन होते हैं । इसका कर्म बंधन मजबूरी है  जिसके अंतर्गत गुरु अपने प्रशासनिक अधिकारियों के नियंत्रण में रहते हुए छात्रों को शिक्षा देते हैं तो छात्र अपने कुल परिवार के नियंत्रण में रहते हुए बेमन से ऐसी शिक्षा ग्रहण करने को बाध्य होते हैं । 
   इसमें गुरु अधिकारी मनोवृति का तथा छात्र बेगारी मजदूर मनोवृति का होता है । इसका नियंत्रण अधिकारीगण के द्वारा होता है इसके दो प्रकार हैं एक शूद्र वादी शिक्षा  जिसमें शिष्य /लोग  दुखी मन से शिक्षा ग्रहण करके दुखी परिणाम देते हैं यह यथार्थवादी शिक्षा जो छात्रों और लोगों के मन में भ्रम उत्पन्न पूर्ण करने वाली परिणाम हीन शिक्षा कही जा सकती है। जो औपचारिकता पूर्ण वार्तालाप से शुरू और बंद होती है । जिसका उद्देश्य स्पष्ट नहीं होता जिससे शिक्षित होने वाले छात्र शूद्र मानसिक अवस्था में सदैव शोक पूर्ण &  रुद्र  , विपिन गरीब दरिद्रता निर्धनता अवस्था में रहते हैं यह छात्र सुख शांति से दूर दिशाहीन स्थिति में सदैव निजहित चिंतन रत रहते हैं । परंतु इन छात्रों में अपने लिए भी सोचने की क्षमता नहीं होती । कारण कि इनमें सोचने की क्षमता व्यापक अध्ययन भ्रम पूर्ण परिणाम और अनुभव से आती है । जब यह अवस्था आती है उससे पहले यह छात्र शिक्षण संस्थानों से बाहर निकल जाते हैं । यह छात्र साक्षर होते हैं परंतु ज्ञानी नहीं ।। जो सदैव अशांत मानसिक अवस्था में शोक और रौद्र अवस्था में रहते हैं । यह नौकरी से मजदूरी से दूसरे के आधीन रहकर यह कर्म करते हैं । परंतु इनके कर्म का फल इनके अधिकारी अधिक भाव में शोषण कर जाते हैं ।
दूसरा  विशिष्ट अशुद्रता का प्रकार है जिसमें छात्र सभी वर्णों के अपने-अपने वर्ण के अनुसार बिना कर्म किए धन अर्जन करना सीख जाते हैं   जिसे शिक्षा से समाज में अपराधीकरण हो जाता है । ऐसी अशुद्र लोग या छिपे हुए शुद्र लोग जो शिक्षा करने तो स्कूल में जाते हैं परंतु शिक्षा को सही रूप से नहीं सीख पाते । अपितु वे :-
धनं धर्मम् आधारं , धनं परं सुख साधनम्  बिना कर्मम् उद्देश्य पूरितं
   का मंत्र आत्मबोध प्रज्ञा विधि से बिना गुरु के पढ़ाई सीख जाते हैं उनके दिमाग में धन के लिए विशेष स्थान होता है वह जीवन का लक्ष्य धन को समझते हैं और आजीवन येन केन प्रकारेण से धन ऐंठने में लगे रहते हैं ।  जैसे धूर्त या अब्राह्मण लोग मंदिर में मूर्ति स्थापना करके लोगों को मूर्त दर्शन कराकर  बिना ज्ञान शिक्षा दिए लोगों से हाथ उठाकर आशीर्वाद मुद्रा से सम्मोहन करके धन उठाते हैं ।  अक्षत्रप लोग सदैव समाज के लोगों को भय देकर उनसे हफ्ता वसूली, मासिक वसूली, वार्षिक वसूली के द्वारा बिना कर्म के धन उठते हैं , उन लोगों की सुरक्षा भी नहीं करते । दूसरी ओर गुप्त या अवैश्य लोग व्यापार में  मिलावट करना , कम तोलना आदि अनेक विधि से ग्राहकों को ठगते रहते हैं। हद तो अशूद्र मजदूर लोग कर देते हैं जो मालिक से पैसा लेकर भी उसका काम नहीं करते और बिना कर्म किए ही मालिक से ज्यादा से ज्यादा मजदूरी लेने के लालच में लगे रहते हैं ।
     यह शिक्षा का सर्व से निकृष्टतम परिवार समाज के लिएअधम गति दायक अनीति का प्रकार कहा जाता है । जो सर्वत्र उपद्रव उत्पात पैदा करने वाला शिक्षा मंत्र है जिसमें समता समानता का धूर्तता  पूर्ण उद्देश्य निहित है । कारण कि समाज मनुष्य प्रकृति तभी तक संचालित जीवन से चल रहे हैं जब तक वह अपूर्ण है यदि वे पूर्णता प्राप्त करने लगते हैं तो उनकी गति मंद मंथर समाप्त हो जाती है ।
 जिसमें सभी शिक्षित अशिक्षित लोग परम दुखी मन से , परम दुखी करने वाला कर्म मंत्र  धर्म- हीन, कर्म -हीन , विपरीतमति , विपरीत- परिणाम , धूर्तता , छल कपट प्रपंच मंत्र से समाज परिवार को दुखी करना और स्वयं दुखी रहना है ।
5:- नौकर शाही शिक्षा  आदेशवादी शिक्षा  संभावना उत्पन्न करने वाली शिक्षा मीटिंग वाली शिक्षा अधिकारी शिक्षा यह शिक्षा का पांचवा प्रकार कहा जाता है जो अफसर के आदेश निर्देश के अनुसार संचालित होती  है अफसर स्वयं शासन के सर्वोच्च कर्मचारियों /उच्च अधिकारियों के द्वारा आदेश निर्देश के अनुसार संचालित होते हैं । इस  शिक्षा के द्वारा सभी के मन में शिक्षा के परिणामों को लेकर शंका संभावनाएं बनी रहती हैं । परंतु इस शिक्षा में सभी कार्य में सहयोग करने वाले लोग असत्य आंकड़े भेज करके अपने अपना दायित्व पूरा कर लेते हैं या अपना अपना आपा बचा लेते हैं । यह बाबू वादी शिक्षा कही जाती है जो मीटिंग या गुप्त वार्ता निर्देश विधि के द्वारा चलती है यह पूर्णतया गोपनीय प्रकार की शिक्षा कही जाती है जिसमें धूर्तता दुष्टता की पराकाष्ठा होती है  इसके परिणाम व्यक्ति के सम्मुख शीघ्र आ जाते हैं जब प्रिय परिणाम आते हैं तो व्यक्ति खुश होता है और जब अप्रिय परिणाम आते हैं तो व्यक्ति दुखी होता है या व्यक्ति को दंडित किया जाता है उसे आर्थिक धन वसूला जाता है उसका स्थान परिवर्तन कर दिया जाता है या उसकी सेवा समाप्त कर दी जाती है ।

सौ साल निरोग जीवन के क्या नियम हैं ?

सभी जीव का जीवन और निरोगी काया इस बात /नियम पर निर्भर करती है कि जीव ने अपने जीवन में अपने लिए निर्धारित समय और समय के अनुसार निर्धारित ब्रह्माण्ड से मिलीं जीव काया ऊर्जा  कार्य ऊर्जा का कैसे उपयोग सदउपयोग दुर्उपयोग किया । यदि वह अपने जीवन के लिए ब्रह्माण्ड से मिली ऊर्जा का सदुपयोग किया करता है तो निसंदेह 100साल या अधिक समय जीवन जिया करता है । यदि वह अपने जीवन के लिए मिली जैविक विचार और कार्य करने के लिए मिली ब्रह्माण्ड ऊर्जा का दुरुपयोग किया करता है तो 100 साल और 50 साल के मध्य में अपना जीवन अपनी हिकमत तिकारत के अनुसार 60, 70,80,90 -100साल जिया करता है । जीव को जन्म लेने के बाद अपना जीवन खुशहाल समृद्धि योजना से जीने के लिए आजकल की शिक्षा में ऊर्जा दुर्उपयोग सिखाया जाता है जिससे जीव अपना जीवन सौ साल से पहले पूरा करके दुनिया में से चला जाता है।
ऊर्जा के उत्पत्ति :-  नियम 
लाँ  आफ थर्मोडायनामिक्स ( आक्सीकरण, अपचयन)
लाँ आफ इनर्जी ट्रांसफर (चालन,संवहन, विकिरण )
लाँ आफ इनर्जी फिक्सिंग ( मैटाबोलाईट रुपान्तरण ) फोटोसिंथेसिस )
     जीव को निजदृष्टिकोण से निजी जीवन के क्षेत्र में उपलब्ध ऊर्जा उपयोग का ज्ञान होना चाहिए 

जीवन में दुख का मूल कारण क्या है?

जीवननाम भूमंडल पर अदृश्य आत्मा का क्षणिक दृश्य स्थिति अहसास होता है ।जो दीर्घकालिक नहीं होता है। अदृश्य आत्माओं द्वारा जो भूमंडल पर विद्यमान हैं उनके जगत में आकर रुकने जीने मरने की अवस्था व्यवस्था है । जो द्विध्रुवीय गतिविधि नियम से संचालित है।  जो धरती की आत्माएं अदृश्य आत्माओं को अदृश्य लोक से बुलाती है, उनको जीवन जीने में सहयोग करती हैं उन्हें सुखदातार  देवता आत्मा कहते हैं । इन सुख दातार दातार आत्माओं के पास पर्याप्त ज्ञान , बंल धन के कारण यह समृद्ध शाली होती हैं । जिससे यह दूसरे जीवो के जीवन को भी सुखी समृद्ध बनाने की सोच रखती हैं।। अब इनके विपरीत जो ज्ञान हीन , विपरीतमति, दुष्ट ,,  दुखी - सतज्ञान हीन  बल हीन, श्रम हीन, धनहीन दुखी आत्माएं होती हैं । जो दूसरे सुखी समर्द्ध जीवो के जीवन जीने में बाधा उत्पन्न करती हैं । जीवित सुखी जीवो के सुख संसाधनों को नष्ट करती,  छीनती हुई  जीवो को जीवन जीने में बाधा, अवरोध उत्पन्न करती हैं ।अपने दुष्ट प्रभाव की उग्रता से  उन सुखी आत्माओं को शीघ्र तरह तरह के मानसिक शारीरिकी रोग लगाकर उनकी जीवन अवधि से पहले उन्हें मृत्यु अवस्था में पहुंचा देती हैं । उन्हें सुखलेवता  या दुखीः देवता आत्माएं कहते हैं ।
          सुखदाता देवता आत्माओं के प्रभाव से हम अपना जीवन आसानी से सुविधा पूर्वक जीते हैं और जीवन के प्रति आसक्ति सद्भाव धारण कर निरंतर सुख की ओर जीवन प्रियता सुप्तभाव शाँति की ओर चलते हैं। दुखी आत्मा या दुख दाता देवता आत्माओं के प्रभाव से हम जीवन भर जागते हुए उग्र भाव अति से अशांति बेचैनी से अभाव प्रभाव प्रभाव स्वभाव  अनासक्ति भाव धारण कर दुख मार्ग की ओर चलने लगते हैं ।  समाज  में  पृथ्वी पर गरीबी निर्धनता दरिद्रता व्याधियों समस्याएं व्यापक रूप से इन्हीं दुख दाता आत्माओं के प्रभाव से व्याप्त हैं  । दुख या हानि दीर्घकालिक रिक्त का विनाश से उत्पन्न होता है,  जब कोई इच्छा दीर्घकाल तक पूरी नहीं होती तो वह दुख में बदल जाती है। दुख उत्पन्न कर देती है।  इसी प्रकार से सुख सदैव इच्छा कामना वासना पूरी होने पर/ निर्माण कार्य से होता है ,, जब तक इच्छाएं जल्दी-जल्दी पूर्ण होती रहती हैं हम सुख महसूस करते हैं।।  दुख गहरा होकर दीर्घकालिक होने से रोग में बदल जाता है जिन लोगों के दिमाग में दीर्घकालीन सतत चिंतन का रोग लग जाता है तो अक्सर उनके शरीर में दर्द रहने लगता है , दुख का मुख्य कारण निम्न स्तरीय चिंतालू  सामाजिक जीवन है , सुखों का मुख्य कारण उच्च स्तरीय चिंता हीन सामाजिक जीवन है । 
   { इस सुख-दुख की प्रक्रिया में सुखी समृद्ध लोग अपने सुखों को अक्षय बनाने के लिए सदैव अल्प बुद्धि लोगों को भ्रमित करने के लिए समाज के नीचे के स्तर पर गलत शिक्षा देकर बनाए रखते हैं । दुख प्राप्ति के मार्ग साधन संधान अनेक हैं दुख सदैव भय  से उत्पन्न होता है दुख इच्छा पूरी ना होने से होता है।  जो अब अप्पू संकल्प अवचेतन मन में जाकर दिमाग की सेटिंग खराब करके सोच आदत व्यवहार खराब कर देता हैं।  इसके अलावा दुख -- शब्दों के द्वारा बाबू बाँस  शिक्षक आप्तानी प्रिय जनों से प्राप्त होता है । जो मन के ऊपरी चैतन्य स्तर में तरह-तरह के गलत शब्द डालकर मस्तिष्क को दूखी कर देते हैं । ।।  इसके अलावा दुख शब्दों चित्रों फिल्म व्हाट्सएप फेसबुक द्वारा अपने मित्र बंधुओं से प्राप्त होता है यह सबसे हल्का कृत्रिम दुख होता है जो निद्रा से शांत हो जाता है सबसे खतरनाक प्रकार का दुख न  सुलझने योग्य असंभव समस्याओं के द्वारा शिक्षित महाबली शत्रुओं द्वारा बना कर दिया जाता है । जो शुगर में रक्तदाब कैंसर जैसी भयंकर रोगों में बदल जाता है समस्त रोग इसी प्रकार से नकारात्मक समस्याओं से उत्पन्न दुख से पैदा होते हैं ।}
 । जब यह निकम्मी श्रमहीन सतज्ञान हीन  दुख दाता आत्माएं सुख की इच्छा करती हैं तो यह जो सुख लेती वह सुखी आत्माओं के हिस्सों का लेतीं हैं  , परंतु सुखी जीवो को उसके बदले में सतत दुख देकर निरंतर  दुखी करती रहती हैं ।
     प्रत्येक जीव और मनुष्य के जीवन की निरंतरता के लिए उसके जीवन में प्रकृति द्वारा  हर दिन हर समय दो प्रकार के व्यक्ति एक सुखदेव  उसके सुखों/दुखों का देवता की व्यवस्था करके प्रत्येक जीव को सुख और दुख के मध्य में संधि स्थान पर करके रखती है ।।  जो लोग जिस प्रकार के जीव पशु मानव आदि का सर्वत्र सर्वाधिक चिंतन करते हैं उसे अपने मन में जीवन में स्थान देते हैं , उस मनुष्य से जुड़ने पर उसके गुण स्वभाव रिद्धि सिद्धि दुख सुख संपत्ति के गुण उसे अपने आप स्वयं प्राप्त होते रहते हैं । हम सुख-दुख अपनी चिंतन अवस्था से खुद प्राप्त करते हैं ।। प्रत्येक मनुष्य को उसके जीवन में सुख -- दुख के बीच नियंत्रित रखने के लिए एक फराओ /  फिरौन की व्यवस्था निर्धारित कर रखी है ।  जो उसे सुख होने पर दुख की ओर प्रेरित करती है और दुख होने पर सुख की ओर प्रेरित करती है यह फिरौनी /  फराओ नियंता लोग निरंतर सत्य को दबाने वाले झूठ का व्यवहार करने में निपुण होते हैं । दूसरों को मूर्ख बनाना उनके सामने दुख सुख हानि का विकल्प पैदा करना इन फिरौनी /   फिराओ  लोगों का मुख्य  शक्ल या शौक होता है । पहले  मेरा फिरौन /फिराओ खलनायक  बिल्लन था ।  अब दूबे है ।  जो निरंतर मेरे सुख समृद्धि घटाने दुख विपत्ति बढ़ाने की सोच कर्म रखने करने वाला सूचनादाता  है । जिन्होंने सभी लोगों को मूर्ख बनाना सीख लिया है जो सुखी होने पर उन्हें दुख की ओर ले जाते हैं और दुखी होने पर सुख की आशा दिखाते हैं ऐसे मनफिराओ  लोगों से बचना हमारा निजी विवेक ज्ञान कहा जाता है । जो दूसरे लोगों को खिलौना समझते हैं और उनके जीवन को खेलने की चीज अर्थात दूसरों के जीवन से खेलते रहते हैं । जो लोग इन मन फिराऊ लोगों को समझ जाते हैं , इनके द्वारा प्रेरित धूर्त ज्ञान भूत ज्ञान से बचना सीख जाते हैं वही सत्य ज्ञानी या सच्चा ज्ञानी है ।
   हम जितना अधिक दुखों से बचने की सोचते हैं उतना अधिक दुखों का दुखों की श्रंखला का चिंतन करते हैं । ऊतने अधिक परिमाण में दुखों को अपने पास बुलाते हैं । क्योंकि हमें जीवन जीना है और हमने  अपना जीवन जीने में दुख को सुख से ज्यादा वरीयता का स्थान दिया है । तभी तो हम निरंतर दुख चिंतन /समस्याओं की इच्छा रखते हैं ।।  काश हमने सुख पाने के लिए सुखों की चिंतन करना सुखों की अनिवार्यता सुखों की वरीयता देखकर सुखों की श्रंखला का चिंतन मनन करना सीखा होता हम भी सुख से जीना सीख जाते ।।  परंतु हमने सीखा जीवन जीने के लिए ज्ञानी बन्ना दूसरों की समस्याओं दूसरों के दुखों का निदान करना नतीजा हमने दूसरों के दुख दूसरों की सोच विचार मंत्रणा से खुद के लिए अधिक मात्रा में दुखों को आमंत्रित करना सीख लिया कि आओ हम तुम्हारा दुखों का निवारण करेंगे ।  हम ज्ञानी बने ज्ञानी कहलाए जाने लगे परंतु ज्ञानी बनने पर हमने क्या पाया अपनी सुखी होने पर भी अपने सुखों को तिलांजलि देकर दूसरों के दुखों की श्रंखला को अपने आगे लगा- लिया अब हम दूसरों के दुखों से परेशान हैं । आपने हमारी निजी दुखों की मात्रा बहुत कम है और हम दूसरों के दुखों से दुखी हो रहे हैं ज्ञानी बनने के लालच में , परंतु हम इससे ज्ञानी देवता बनने के चक्कर में मूर्खता अपना रहे हैं ।